Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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जो कुछ करता है, उसके मन में एक चित्र जैसा प्रारूप उत्पन्न होता है। मन की नैसर्गिक वृत्ति चंचलता है। जब मन पर विवेक का अंकुश नहीं रहता तो उच्छृखलचित्त बड़े से बड़ा बिगाड़ कर देता है। इसलिए मन को दुष्ट अश्व से उपमित करते हुए कवि कहते हैं
मणो साहसिओ भीमो। दुट्ठस्सो परिधावई। उत्तर. २३/५८
यह जो साहसिक, भयंकर, दुष्ट-अश्व दौड़ रहा है, वह मन है। 'मनश्चलं प्रकृत्यैव - मन प्रकृति से ही चंचल है। शूद्रक ने भी मन को उन अश्वों की तुलना में रखा है जो तीव्रता से भागना चाहते हैं - 'वेगं करोति तुरगस्त्वरितं प्रयातुं'।४२ धम्मपद में कहा है- 'फन्दनं चपलं चित्तं, दुरक्खं दुन्निवारयं'४३- यह चित्त स्पन्दनशील है, चपल-अस्थिर है, इसे देख पाना कठिन है तथा यह दुर्निवार्य है। व्यक्तित्व-विकास
विकास के इस युग में व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास करना चाहता है। प्रसाधनों से बाह्य व्यक्तित्व को आकर्षक बना लेता है किन्तु आन्तरिक व्यक्तित्व, अन्दर का सौन्दर्य कैसे निखरें? उसके मानदंड हैं -
१. सम्यक् दृष्टिकोण २. सम्यक् विचार ३. सम्यक् आचार
४. सम्यक् व्यवहार उत्तराध्ययन के प्रवक्ता ने सूक्तियों के माध्यम से व्यक्तित्व-विकास के भी सूत्र दिये हैं। १. सम्यक् दृष्टिकोण
मिथ्या दृष्टिकोण की शिला को तोड़ने के लिए सम्यक् दृष्टिकोण एक सशक्त शस्त्र है। उससे आध्यात्मिक समृद्धि प्राप्त होती है। फिर व्यक्ति अपनी भूल देखता है, दूसरों के छिद्र नहीं। परिष्कार कब?
सुधार का प्रथम चरण है अपनी गलती का स्वीकरणकडं कडे त्ति भासेज्जा, अकडं नो कडे त्ति य ॥ उत्तर. १/११ .. अकरणीय किया हो तो 'किया' और नहीं किया हो तो 'नहीं किया' . कहें। व्यक्तित्व-विकास की इससे अधिक प्रेरक उक्ति क्या हो सकती है?
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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