Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव, नित्य, शाश्वत और अर्हत के द्वारा उपदिष्ट है। इसका पालन कर अनेक जीव सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में भी होंगे।
प्रस्तुत संदर्भ में धुवे, निअए, सासए शब्द विशेषण-वक्रता के उदाहरण
धुवे शब्द विशिष्ट चामत्कारिक है। ध्रुव अर्थात् जो श्रमणों से प्रतिष्ठित और पर-प्रवादियों से अखंडित है। ब्रह्मचर्य-धर्म की उत्कृष्ट विशेषता इस विशेषण से द्योतित की गई है। 'ध्रुव' शब्द 'ध्रु गतिस्थैर्ययोः' धातु से अच् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है गति और स्थिरता। गत्यर्थक धातुएं ज्ञानार्थक होती हैं। साधक ब्रह्मचर्य-धर्म की अनुपालना कर परम ज्ञान, परम स्थिरता जो कि मोक्ष के धर्म हैं, उसकी ओर अग्रसर है और उसे प्राप्त कर अपने ज्ञान-स्वरूप में स्थिर हो जाता है। यहां 'धुवे' शब्द ज्ञान और स्थिरता का बिंबन कर रहा है। निअए
यह ब्रह्मचर्य धर्म नित्य है। नियतं भवः नित्यः। 'नित्यं स्यात्सततेऽपि च शाश्वते त्रिषु।'
द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा जो अप्रच्युत, अनुत्पन्न और स्थिर स्वभाव वाला है, जो त्रिकालवर्ती होता है, वह नित्य है।
___ ब्रह्मचर्य धर्म की त्रैकालिक महत्ता का प्रकटन 'निअए' विशेषण से हो रही है। सासए
'शश्वद् भवः शाश्वतः।' शश्वत् शब्द से अण् प्रत्यय करने पर शाश्वत व्युत्पन्न होता है। अर्थात् जो निरंतर बना रहता है वह शाश्वत है।
‘सासए' विशेषण यहां ब्रह्मचर्य धर्म की सनातनता एवं नित्यविद्यमानता को प्रकट कर रहा है।
कहं धीरे अहेऊहिं अत्ताणं परियावसे? सव्वसंगविनिम्मुक्के सिद्ध हवइ नीरए।। उत्तर. १८/५३
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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