Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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जीवन साधा नहीं जा सकता, इसलिए प्रमाद मत करो। बुढ़ापा आने पर कोई शरण नहीं होता। प्रमादी, हिंसक और अविरत मनुष्य किसकी शरण लेंगे यह विचार करो।
यहां सामूहिक प्रयोग की अभिव्यक्ति के लिए 'जणे पमत्ते' में बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग अधिक चामत्कारक तथा आह्लादक है। उपग्रह-वक्रता
जब कवि औचित्य के कारण रमणीयता की उत्पत्ति के लिए आत्मनेपद एवं परस्मैपद में से किसी एक का प्रयोग करे तो उपग्रह-वक्रता होती है -
पदयोरुभयोरेकमौचित्याद् विनियुज्यते। शोभायै यत्र जल्पन्ति तामुपग्रहवक्रताम्।।
उपग्रह विचलन कवि-कथन की वक्रता को विलक्षण रमणीयता प्रदान कर रहा है -
आहच्च सवणं लधुं सद्धा परमदुल्लहा। सोच्चा नेआउयं मग्गं बहवे परिभस्सही। उत्तर. ३/९
कदाचित् धर्म सुन लेने पर भी उसमें श्रद्धा होना परम दुर्लभ है। बहुत लोग मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी उससे भ्रष्ट हो जाते हैं। यहां श्रद्धा नहीं होने से अच्छी बातों में भी आचरण की असमर्थता के कारण भ्रष्टता के द्योतन में परिभस्सई' का प्रयोग उपग्रहवक्रता के सौन्दर्य को व्यक्त करता है।
सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो न दीसइ जाइविसेस कोई। सोवागपुत्ते हरिएससाहू जस्सेरिसा इढि महाणुभागा।।
उत्तर. १२/३७ यह प्रत्यक्ष ही तप की महिमा दीख रही है, जाति की कोई महिमा नहीं है। जिसकी ऋद्धि ऐसी महान है, वह हरिकेश मुनि चाण्डाल का पुत्र है।
उच्चता और नीचता का मानदंड तप, संयम और पवित्रता ही है, जाति नहीं इसके प्रस्तावन में 'दृश् प्रेक्षणे'६० धातु से निष्पन्न 'दीसइ' का प्रयोग चामत्कारक है।
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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