Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
बालमरणाणि बहुसो अकाममरणाणि चेव य बहूणि। मरिहिंति ते वराया जिणवयणं जे न जाणंति।।
उत्तर. ३६/२६१ जो प्राणी जिनवचनों से परिचित नहीं है, वे बेचारे अनेक बार बालमरण तथा अकाममरण करते रहेंगे।
आप्त-वचन जिनके कानों में प्रविष्ट नहीं हुआ है उनकी स्थिति दयनीय बनती है, उनका संसारभ्रमण अनिवार्य है-इसका बिंबन यहां 'ते' सर्वनाम से हुआ है। वृत्ति-वैचित्र्य-वक्रता
वृत्ति से अभिप्राय व्याकरण के समास, तद्धित आदि से है। जहां किसी विशेष समास आदि के प्रयोग से भाषा में सौन्दर्य आ जाता है, वहां वृत्तिवैचित्र्य-वक्रता कहलाती है। आचार्य कुन्तक ने लिखा है -
अव्ययीभावमुख्यानां वृत्तीनां रमणीयता। यत्रोल्लसति सा ज्ञेया वृत्तिवैचित्र्यवक्रता॥३
'तवोसमायारिसमाहिसंवुडे'(१/४७) अर्थात् वह तपः सामाचारी और समाधि से संवृत होता है।
तपः सामाचारिसमाधिसंवृतः तपः सामाचारिसमाधयः तैः संवृतः तपः सामाचारिसमाधिसंवृतः। यहां द्वन्द्व समास तथा तृतीया तत्पुरुष समास है। इस वृत्ति-वैचित्र्यवक्रता से विनीत शिष्य की उदात्तता का वर्णन यहां समास-वृत्ति वक्रता का प्राण है। ‘स देवगंधव्वमणुस्सपूइए चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं।'
उत्तर. १/४८ देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य मल और पंक से बने हुए शरीर को त्यागकर या तो शाश्वत सिद्ध होता है या अल्पकर्म वाला महर्द्धिक देव होता है।
देवगन्धर्वमनुष्यपूजितः-देवाश्च गन्धर्वाश्च मनुष्याश्च इति देवगन्धर्वमनुष्याः तैः पूजितः इति देवगन्धर्वमनुष्यपूजितः। यहां पर भी द्वन्द्व .. समास व तृतीया तत्पुरुष का प्रयोग हुआ है।
104
उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org