Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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धम्मतित्थयरे : महावीर साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करने के कारण धर्मतीर्थ के प्रर्वतक कहलाये।
जिणे : 'जिं जये १९ धातु से नक् प्रत्यय करने पर जिन बनता है। राग-द्वेष को जो जीतता है वह जिन कहलाता है। वर्धमान ने आत्मा के साथ युद्ध कर आंतरिक शत्रुओं को परास्त किया अतः 'जिणे' विशेषण साभिप्राय
विस्सुए : तीनों लोकों में उनका यश व्याप्त था इसलिए विश्रुत कहलाये।
इस प्रकार ये विशेषण वर्धमान की और भी विशेषताओं को उजागर करने के कारण विशेषण-वक्रता से अन्वित है। संवृति-वक्रता
संवृति का अर्थ है छिपाना। इसमें वस्तु के स्वरूपगोपन में ही वक्रता का समावेश होता है।
जहां वस्तु के उत्कर्ष, लोकोत्तरता या अनिर्वचनीयता की प्रतीति कराने के लिए अथवा लोकोत्तरता की प्रतीति को सीमित होने से बचाने के लिए सर्वनाम से आच्छादित कर उसका द्योतन किया जाता है, वहां संवृतिवक्रता होती है। आचार्य कुन्तक ने लिखा है
यत्र संवियते वस्तु वैचित्र्यविवक्षया। सर्वनामदिभिः कश्चित् सोक्ता संवृतिवक्रता।।
जब सौन्दर्य या वैचित्र्य के प्रतिपादन के लिए सर्वनाम आदि के द्वारा पदार्थ का गोपन या संवरण किया जाता है, उसे संवृतिवक्रता कहते हैं। ध्वनिकार आचार्य आनंदवर्धन ने इसे सर्वनामव्यंजकत्व के रूप में निरूपित किया तथा असंलक्ष्यक्रमव्यंग्यध्वनि का आधार माना।
ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स या सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाण थावराण य|| उत्तर. २०/३५
तब मैं अपना और दूसरों का तथा सभी त्रस और स्थावर जीवों का नाथ हो गया। जो स्वयं दुःख मुक्त है तथा दूसरों को भी दुःख से मुक्ति दिलाने में समर्थ है वह नाथ है।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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