Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
१. वस्तु के वैशिष्ट्य को व्यंजित करने के लिए विशिष्ट अर्थ
वाली धातु का प्रयोग।
कर्ता के द्वारा लोक में अप्रसिद्ध क्रिया के सम्पादन का कथन ३. कर्ता के द्वारा अन्य कर्ता की अपेक्षा विचित्र क्रिया के सम्पादन
का कथन।
विशेषण के द्वारा क्रिया में अर्थविशेष के व्यंजकत्व का आधान। ५. रमणीयता का बोध कराने के लिए अन्य पर अन्य की क्रिया
का आरोप। ६. किसी अतिशय या अनिवर्चनीयता की प्रतीति हेतु क्रिया के
कर्मादि कारकों की संवृत्ति। आनंदवर्धन ने इसे तिङन्त व्यंजकता कहा है।
उत्तराध्ययन के कवि की अस्मिता क्रियावक्रता के माध्यम से बड़े प्रभावी व अन्तःस्पर्शी रूप में व्यक्त हुई है -
संजोगा विप्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो। विणयं पाउकरिस्सामि आणुपुब्बिं सुणेह मे।। उत्तर. १/१
जो संयोग से मुक्त है, अनगार है, भिक्षु है, उसके विनय को क्रमशः प्रकट करूंगा। मुझे सुनो।
‘विणयं पाउकरिस्सामि' अर्थात विनय को प्रकट करूंगा। प्रकट करना मूर्त का धर्म है और विनय अमूर्त है, यहां पर अमूर्त विनय को मूर्त के रूप में चित्रित किया गया है। विनय की उत्कृष्टता के प्रतिपादन के लिए अमूर्त पर मूर्त्तत्व का आरोप हुआ है। राग-द्वेष रहित भिक्षु के चित्त में ही विनय का अवस्थान हो सकता है। यह उपचार-वक्रता का उत्कृष्ट निदर्शन है।
यहां ‘पाउकरिस्सामि' में क्रिया-वक्रता है। निरूविस्सामि, कहिस्सामि आदि क्रियाओं का भी प्रयोग किया जा सकता था लेकिन इसी का ही क्यों किया? तात्पर्य है विनय धर्म का मैंने साक्षात्कार किया है, हृदय से उसे जीया है और अब लोक सामान्य के लिए प्रकट कर रहा हूं। यहां उपदेष्टा में उपदेश्य पूर्ण रूप से घटित है, इस बात का प्रकटीकरण ‘पाउकरिस्सामि' क्रिया से हो रहा है, साथ ही प्रत्यक्ष अनुभूति की व्यंजना हो रही है। वही उपदेश सफल होता है जिसे उपदेशक ने पहले स्वयं के जीवन में उतारा है फिर संसार को प्रेरणा दी है।
.. उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
107
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org