Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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जो योग (अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति) क्षेम (प्राप्य वस्तु का संरक्षण) करने वाला होता है, वह नाथ कहलाता है।
दुःखों का दास, कषायों से अभिभूत व्यक्ति कभी किसी का नाथ नहीं बन सकता। यहां अनाथ से नाथ बनने की यात्रा, स्वामी बनने की कला 'हं' (अहं) सर्वनाम द्वारा संवृत है। इसीलिए अनाथी मुनि के स्वामी, सामर्थ्यवान, ऐश्वर्यवान बनने का द्योतक 'हं' (अहं) सर्वनाम सार्थक है।
गिरिं रेववयं जन्ती वासेणुल्ला उ अंतरा। वासंते अंधयारम्मि अंतो लयणस्य सा ठिया|| उत्तर. २२/३३
वह रैवतक पर्वत पर जा रही थी। बीच में वर्षा से भीग गई। वर्षा हो रही थी, अंधेरा छाया हुआ था, उस समय वह लयन (गुफा) में ठहर गई।
यहां 'सा' पद सर्वनाम है। तद् शब्द से स्त्रीलिंग में आप् प्रत्यय करने पर सा बनता है। इस पद के द्वारा राजीमती की गुणवत्ता, चारित्रिक उदात्तता, रूप-शील रमणीयता आदि अभिव्यंजित हो रहे हैं।
महाकवि कालिदास ने तपोवन वर्धिता बाला की वृक्ष आदि पर सोदर-स्नेह की भाषाभिव्यक्ति 'सा' सर्वनाम पद से की है -
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषुया नादत्ते प्रियमण्डनाऽपि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्। आद्यै वः कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम्।।
यहां 'सा' पद से शकुन्तला का प्रकृति से अपत्य-स्नेह, रूप सौन्दर्य, गुण सौन्दर्य प्रकट हो रहा है।
उग्गओ विमलो भाणू सव्वलोगप्पभंकरो। सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिण।। उत्तर. २३/७६
समूचे लोक में प्रकाश करने वाला एक विमल भानु उगा है। वह पूरे लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा।
अज्ञान/मोह रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए महावीर रूपी सूर्य का उदय हो गया है। यहां अज्ञानतिमिरहरणता तथा प्रखर तेजस्विता के चित्रण में 'सो' सर्वनाम समर्थ है।
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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