Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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जो सर्वत्र व्याप्त हो जाए वह यश है। हरिकेशी का यश सर्वत्र फैला हुआ था। अतः वे सर्व-पूज्य थे। महाजसो विशेषण से मुनि की गुणवत्ता, पूज्यता का उद्घाटन हो रहा है।
___ महाणुभागो : महानुभागः-'अतिशयाचिन्त्यशक्तिः।'३१ जिसे महान अचिन्त्य-शक्ति प्राप्त हो, उसे महाभाग-महाप्रभावशाली कहा जाता है। हरिकेशी अपने तप के प्रभाव से सब कुछ करने में समर्थ थे। सर्वनाश भी कर सकते थे। 'महाणुभागो' विशेषण से ऋषि की सर्व-सामर्थ्यता का चित्रण हो रहा है।
घोरवओ : 'घोरव्रतो' धृतात्यन्तदुर्द्धरमहाव्रतः।३६ जो अत्यन्त दुर्धर महाव्रतों को धारण किए हुए हो उसे 'घोरव्रत' कहा जाता है। हरिकेशी मुनि का कठोर तप प्रशंसनीय था। उनके तापस जीवन की पराकाष्ठा एवं तापसिक विभूति का दर्शन इस विशेषण से हो रहा है।
घोरपरक्कमो : 'घोरपराक्रमश्च' कषायादिजयं प्रति रौद्रसामर्थ्यः।२७ जिसमें कषाय आदि को जीतने का प्रचुर सामर्थ्य हो, उसे 'घोर-पराक्रम' कहा जाता है।
तत्त्वार्थ राजवार्तिक में 'घोर-पराक्रम' की व्याख्या करते हुए बताया है - ज्वर, सन्निपात आदि महाभयंकर रोगों के होने पर भी जो अनशन काया-क्लेश आदि में मन्द नहीं होते और भयानक श्मशान, पहाड की गुफा आदि में रहने के अभ्यासी हैं वे 'घोरतपी' कहे जाते हैं। ये ही जब तप और योग को उत्तरोत्तर बढ़ाते जाते हैं तब 'घोर-पराक्रम' कहे जाते हैं।२८
'कार्यं वा साधयामि देहं वा पातयामि' की उक्ति को घोर-पराक्रम द्वारा चरितार्थ कर हर क्षण प्रसन्नता का संदेश देने का सामर्थ्य इस विशेषण से अभिव्यंजित है।
हरिकेशी मुनि के लिए प्रयुक्त इन विशेषणों के माहात्म्य से उनके अन्तर्निहित संयम की प्रखरता व्यक्तित्व की उदात्तता अभिव्यंजित है।
एस धम्मे धुवे निअए सासए जिणदेसिए। - सिद्धा सिज्झंति चाणेण सिज्झिस्संति तहापरे। उत्तर. १६/१७ .
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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