Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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अरिष्टनेमि की श्रेष्ठता, सुन्दरता का उद्घाटन करने के लिए धर्मविपर्यय मूलक 'सिरे चूडामणि जहा' वाक्य का प्रयोग किया गया है।
अचेतन पर चेतन के धर्म का प्रयोग गामाणुगामं रीयंतं अणगारं अकिंचणं। अरई अणुप्पविसे तं तितिक्खे परीसह।। उत्तर. २/१४
एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए अकिंचन मुनि के चित्त में अरति उत्पन्न हो जाय तो उस परीणह को वह सहन करे।
'अरति उत्पन्न हो जाय' यहां उत्पन्न होना चेतन कर्ता का धर्म है, जो अचेतन 'अरई' पर आरोपित है। जिससे संयमी जीवन में आए हुए परीषहों को समभाव से सहन करने की बात अभिगम्य है। यहां जड़ पर चेतन का आरोप कर कवि ने चमत्कार उत्पन्न किया है। मानव के साथ तिर्यच के धर्म का प्रयोग
जहा सुणी पूइकण्णी निक्कसिज्जइ सव्वसो। एवं दुस्सील पडिणीए मुहरी निक्कसिज्जइ। उत्तर. १/४
जैसे सड़े हुए कानों वाली कुतिया सभी स्थानों से निकाली जाती है, वैसे ही दुःशील, गुरु के प्रतिकूल वर्तन करने वाला और वाचाल भिक्षु गण से निकाल दिया जाता है।
__जुगुप्सा भाव की अभिव्यंजना के लिए यहां दुःशील शिष्य के साथ पूतिकर्णी कुतिया के धर्म का आरोप किया गया है। पशु धर्म का मनुष्य पर आरोप हुआ है।
__ अंतरंग शत्रुओं (क्रोधादि) के दमन के लिए शूर हाथी के धर्म का मुनि पर आरोप उसकी आत्मिक शक्ति के सौन्दर्य की अनुपमेयता को व्यंजित कर रहा है -
'नागो संगामसीसे वा सूरो अभिहणे परं'। उत्तर. २/१०
मुनि क्रोध आदि का वैसे ही दमन करे जैसे युद्ध के अग्रभाग में शूर हाथी बाणों को नहीं गिनता हुआ शत्रुओं का हनन करता है।
जहा य भोई! तणुयं भुयंगो निम्मोयणिं हिच्च पलेइ मुत्तो। एमए जाया पयहंति भोए ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्को॥
उत्तर. १४/३४
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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