Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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लोभ
धरती व आसमान के बीच रहने वाला मनुष्य सारी धरती और आसमान पर अपना आधिपत्य चाहता है। यह इच्छा लोभ को जन्म देती है। लोभ रूपी अन्धकार से आवृत मनुष्य की विवेकचेतना सुप्त रहती है। अतः वह करणीय और अकरणीय को नहीं जानता हुआ चोर-कार्य में प्रवृत्त होता है -
'लोभाविले आययई अदत्तं' उत्तर. ३२/२९
लोभ से कलुषित आत्मा चोरी में प्रवृत्त होती है। इतिवृत्तक से यह तुलनीय हैं
लुद्धो अत्थं न जानाति, लुद्धो धम्मं न पस्सति। अन्धतमं तदा होति, यं लाभो सहते नरं।।
लोभी न परमार्थ को समझता है, न धर्म को। वह तो धन को ही सब कुछ समझता है। उसके भीतर गहन अन्धकार छाया रहता है।
इस प्रकार इन सूक्तियों के माध्यम से उत्तराध्ययन का स्रष्टा पाठक के हृदय में ऐसी भावनाएं जगाना चाहता है, जो उसे मनुष्य जीवन की दुर्लभता का ज्ञान कराए तथा धार्मिक आस्था उत्पन्न कर शाश्वत सुख की ओर अग्रसर करें। सूक्तियों में कवि की यह प्रेरणा मुखरित हो उठी है। ऐसे तत्त्वों का प्रतिपादन हुआ है, जिससे जीवन उदात्त एवं लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। सिद्धांतों की पुष्टि, मानवीय-मनोभाव, उपदेश व आचरण विशेष के औचित्य की सिद्धि द्वारा अभिव्यक्ति को सक्षम बनाने में सूक्तियों का प्रयोग कर कवि ने अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त की है। मुहावरे
लाक्षणिक या व्यंग्यार्थ में रूढ़ वाक्य अथवा वाक्यांश के प्रयोग को मुहावरा कहते हैं। यह मूलतः अरबी भाषा का एक शब्द है। काव्य में मुहावरों का प्रयोग अर्थगत चमत्कार उत्पन्न करता है तथा भाषा को प्रभावशाली बनाता है।
जब वक्ता या लेखक अपने भावों की अपेक्षित अभिव्यक्ति में सामान्य प्रयोग तथा सामान्य भाषा को असमर्थ पाता है तो वह सामान्य प्रयोग की कारा को तोड़कर विचलन करता है। नये मुहावरों का जन्म इसी विचलन से होता है।° उत्तराध्ययन की काव्य भाषा अध्यात्म चेतना की निदर्शक है, पर
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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