Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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'अत्ताहि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परे सिया?'७६ आपकी अपनी आत्मा ही अपना नाथ है, दूसरा कौन उसका नाथ हो सकता है? वर्ण-व्यवस्था
कवि अपने संचित अनुभवों को समाज तक पहुंचाने के लिए भी सूक्ति का प्रयोग करता है। भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन बहुत प्राचीन समय से है। वर्ण-व्यवस्था को पूर्ण मान्यता प्राप्त थी, परन्तु जहां कर्म करने का प्रश्न है, वह वर्ण-व्यवस्था के अनुसार हो, यह आगमकार की दृष्टि से आवश्यक नहीं। क्योंकि व्यक्ति का अनुभव, उसकी शक्तियां, उसका चरित्र प्रमाण होता है। अतः आगमकार ने जन्मना जातिवाद के विरूद्ध यह स्वर मुखर किया
कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा। उत्तर. २५/३१
मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है। कर्मणा जाति व्यवस्था को धम्मपद भी स्वीकार करता है
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चच धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो।।
भास की सूक्ति- 'अकारण रूपमकारणं कुलं, महत्सु नीचेसु चकर्म शोभते-रूप और कुल से क्या? कर्म ही महान और नीच में शोभित होता है। भास का यह विचार उत्तराध्ययनकार की उपर्युक्त सूक्ति से तुलनीय है। चारित्र से पूर्व
लक्ष्यप्राप्ति के लिए चारित्र आवश्यक है। किन्तु यदि दृष्टिकोण यथार्थ नहीं है तो ज्ञान यथार्थ नहीं होगा और ज्ञान के यथार्थ नहीं होने पर चारित्र यथार्थ नहीं होगा। इसलिए उत्तराध्ययन में चारित्र से दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया कि
'नत्थि चरित्तं-सम्मत्तविहूणं' उत्तर, २८/२९ सम्यक्त्व विहीन चारित्र नहीं होता।
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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