Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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चावलों की भूसी एवं विष्ठा के धर्म का शील और दुःशील पर आरोप किया गया है। यह आरोप दुःशील शिष्य की अज्ञानता, तत्त्वग्रहणअसमर्थता एवं चरित्र हीनता की प्रतीति करा रहा है।
एगप्पा अजिए सत्तु कसाया इन्दियाणि या ते जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणी।। उत्तर. २३/३८
एक न जीती हुई आत्मा शत्रु है, कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। मुने! मैं उन्हें जीतकर नीति के अनुसार विहार कर रहा हूं।
जीतना शत्रु-मूर्त पदार्थ का धर्म है, उसका उपचार आत्मा पर करके आत्मविजय के संगान को बुलन्द किया है। यहां जो निजस्वरूप है, उससे व्यतिरिक्त पदार्थ शत्रु हैं। जो स्वरूपरमण (सुख) में बाधक हो वह शत्रु है, जो आतंकित करे, वह शत्रु है। उपर्युक्त वस्तु, कषायादि शत्रु हैं। उनको शांत करना, आत्मा से अलग करना, आत्मा से निकाल फेंकना आदि तथ्य गम्य है।
इहमेगे उ मन्नंति अप्पच्चक्खाय पावगं। आयरियं विदित्ताणं सव्वदुक्खा विमुच्चई।। उत्तर. ६/८
इस संसार में कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पापों का त्याग किये बिना ही तत्त्व को जानने मात्र से जीव सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। _ 'मुच्लमोचने' धातु से निष्पन्न विमुच्चई का अर्थ है मुक्त होना, छोड़ना छोड़ना और मुक्त होने से क्रिया मूर्त्त द्रव्य से संबंध रखती है। दुःख भावद्रव्य है। यहां मूर्त का अमूर्त पर आरोप रूप उपचार-क्रिया का प्रयोग हुआ है। साथ ही दुःखों का आत्मा से भेद हो जाना आदि तथ्य अभिव्यंजित हैं।
___ कामभोगों की नश्वरता क्षणभंगुरता को दिखाने के लिए मूर्त के धर्म का अमूर्त काम पर प्रयोग किया गया है -
'कुसग्गमेत्ता इमे कामा' उत्तर. ७/२४ ये काम-भोग कुशाग्र पर स्थित जल-बिन्दु जितने क्षणिक हैं। 'कामा आसीविसोवमा' उत्तर. ९/५३
कामभोग आशीविष सर्प के तुल्य हैं। भोगों की भयंकरता प्रकट करने के लिए यहां मूर्त आशीविष सर्प के धर्म का अमूर्त काम पर आरोप किया गया है।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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