Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
है। 'न हि नस्सति कस्सचि कम्मं, एति ह नं लभतेव सुवामि'७२ किसी का कृत-कर्म नष्ट नहीं होता, समय पर कर्ता को वह प्राप्त होता ही है। उपनिषद्कार का कहना है
यथाकारी यथाचारी तथा भवति- साधुकारी साधुर्भवति,
पापकारी पापो भवति, पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन। जो जैसा आचरण करता है वह वैसा ही हो जाता है। साधु कर्म करने वाला साधु और पाप कर्म करने वाला पापी हो जाता है। उपशांत कषाय
संयम जीवन अपनाने वाले हर संन्यासी के गुणों की विशेषता कवि ने दिखायी है
महप्पसाया इसिणो हवंति। न हु मुणी कोवपरा हवंति। उत्तर. १२/३२ ऋषि महान प्रसन्नचित्त होते हैं। मुनि कोप नहीं किया करते। कब संभव है आत्मा का प्रत्यक्षीकरण
साध्य के अनुरूप ही साधन की अपेक्षा होती है। मूर्त्त इन्द्रियों के साधन से अमूर्त आत्मा का दर्शन कैसे संभव है? इसी विवक्षा से आत्मा की अमूर्तता की अभिव्यक्ति आगमकार के शब्दों में
'नो इंदियगेज्झ अमुत्तभावा' उत्तर.१४/१९ ।
आत्मा अमूर्त है इसलिए इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। इन्द्रियां मूर्त द्रव्य का ही ग्रहण करती हैं। आत्मा अमूर्त है अतः इन्द्रियों का विषय नहीं है। आत्मा स्वयं अद्रष्ट है पर सबको देखता है-कहकर व्यक्त किया गया। महाभारत में इसे 'न ह्यत्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियैः कामगोचरैः'७१
आत्मा का इन्द्रियों द्वारा दर्शन नहीं किया जा सकता-इस प्रकार प्रस्तुत किया गया। आत्मा ही स्वयं का नाथ है
'अप्पणा अणाहो संतो कहं नाहो भविस्ससि?' उत्तर. २०/१२
स्वयं अनाथ होते हुए दूसरों के नाथ कैसे होओगे? यह पद धम्मपद से तुलनीय है
74
उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.