Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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'सेसावसेसं लभउ तवस्सी' १२/१० आदि में वर्णों की एक बार या अनेकशः आवृत्ति होने से वर्णविन्यास-वक्रता में श्रुतिसुखद चमत्कार द्रष्टव्य हैं। इसका विस्तृत वर्णन अनुप्रास-अलंकार में ध्यातव्य है। पद-पूर्वार्ध-वक्रता
अनेक वर्गों के समुदाय को पद कहते हैं। पद के दो अंग हैं-प्रकृति तथा प्रत्यय। मूल धातु (प्रकृति) से सम्बन्धित वक्रता को ही पद-पूर्वार्द्धवक्रता कहते हैं। इसके आठ भेद हैं। रूढ़ि-वैचित्र्य-वक्रता
पर्यायवाची शब्दों का आधारभूत मूल शब्द रूढ़ि कहलाता है। रूढ़ि शब्द का एक ऐसा प्रयोग कि वह वाच्यार्थ का बोध न कराकर प्रकरण के अनुरूप अन्य अर्थ व्यंजित करे अथवा उससे वाच्यार्थ के किसी धर्म का अतिशय प्रकट हो, रूढ़ि-वैचित्र्य-वक्रता कहलाता है। इसका प्रयोजन है लोकोत्तर तिरस्कार या लोकोत्तर श्लाघ्यता के अतिशय का प्रकाशन।
यत्र रूढ़ेसंभाव्यधर्मध्यारोपगर्थता। सद्धर्मातिशयारोपगत्वं वा प्रतीयते॥ लोकोत्तरतिरस्कारश्लाघ्योत्कर्षाभिधित्सया। वाच्यस्य सोच्यते कापि रूढ़िवैचित्र्यवक्रता। उत्तराध्ययन की कुछ गाथाएं इसका प्रमाण हैं पुट्ठो य दंसमसएहिं समरेव महामुणी। नागो संगामसीसे वा सूरो अभिहणे परं। उत्तर. २/१०
डांस और मच्छरों का उपद्रव होने पर भी महामुनि समभाव में रहे, क्रोध आदि का वैसे ही दमन करे जैसे- युद्ध के अग्रभाग में रहा शूर हाथी बाणों को नहीं गिनता हुआ शत्रुओं का हनन करता हैं
__'नगे भवः नागः।' नग +तद्धितीय अण् प्रत्यय जुड़कर निष्पन्न नाग शब्द का मूल अर्थ है पर्वत पर उत्पन्न होने वाला। किन्तु यहां सर्वत्र समभाव, स्थिरता और धैर्यशीलता से युक्त अर्थ में नागशब्द का प्रयोग हुआ है।
नाग के उत्कर्ष को प्रकट करने के लिए कवि ने रूढ़ या परम्परागत अर्थ पर दूसरे असंभाव्य अर्थ का अध्यारोप किया है।
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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