Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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ऐसा अन्धा और बहरा बना देता है कि विद्वान और महान व्यक्ति भी उचित-अनुचित के विचार से रहित हो जाते हैं। उस अवस्था में मनुष्य विनाशकारी दृष्टि अपनाता है। अतएव कल्याण-पथ का कंटक क्रोध आगमकार की दृष्टि से त्याज्य है
'कोहं असच्चं कुवेज्जा' उत्तर. १/१४ ।। क्रोध को विफल करें। बाण के शब्दों में'न हि कोपकलुषिता विमृशति मतिः कर्त्तव्यमकर्त्तव्यं वा१८
क्रोध से मैली बुद्धि करणीय या अकरणीय का विचार नहीं कर सकती। क्रोध और सुख की अभिलाषा साथ नहीं रह सकती-'ज्वलयति महतां मनांस्यमर्षे न हि लभतेऽवसरं सुखाभिलाषः। क्रोध के दुष्परिणामों को देखते हुए सूक्ति-संदेश है कि क्रोध आ भी जाए तो उसे सफल नहीं होने दें, प्रकट होने का अवसर न दें। 'उवसमेण हणे कोहं' उपशम से क्रोध का हनन करें। द्वेष से उपरत
द्वेष और राग- ये कर्म के बीज है, आत्मधर्म के बाधक तत्त्व हैं। दूसरों के द्वारा परीषह उत्पन्न किए जाने पर भी मुनि अपने चित्त को मलिन न बनाएं अपितु आत्मरमण में लीन रहे। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः' साधक को मन की सजगता का संदेश देता है ये कथन
'मणं पि न पओसए' उत्तर. २/११ ।।
मन में भी द्वेष न लाए। अथर्ववेद में कहा गया-'मा नो द्विक्षत् कश्चन' १० विश्व में मुझसे कोई भी द्वेष न करें। यह तभी संभव है जब हम मन में भी किसी के प्रति द्वेष न लाए। राग और द्वेष का अक्षण ही तटस्थता का क्षण है, ध्यान का क्षण है। अतः साधना की दृष्टि से इस सूक्ति का अपना मूल्य है। श्रद्धा
श्रद्धा एक ऐसा अन्तर्विश्राम है, जिसका आश्रय शान्ति का अनुभव कराता है। तर्क, चिन्तन आदि का परिपाक श्रद्धा में प्रस्फुटित न हो तो क्रियान्वयन की भूमिका प्राप्त नहीं होती और उसके बिना जीवन का लक्ष्य
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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