Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे सीयजलावसन्ने गाहग्गहीए महिसे वरण्णे।।
उत्तर. ३२/७६ जो मनोज्ञ स्पर्षों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे घडियाल के द्वारा पकड़ा हुआ। अरण्यजलाशय के शीतल जल के स्पर्श में मग्न बना रागातुर भैंसा।
आसक्ति के मोहपाश में नहीं बंधने की कवि-प्रेरणा इस स्पर्श-बिम्ब से ध्वनित हो रही है। अन्तःकरणेन्द्रिय ग्राह्य बिम्ब
विविध भावनाएं-हास्य-शोक, सुख-दुःख, प्रसन्नता-विषाद आदि स्थायी व संचारी भाव भाव-बिम्ब के विषय हैं।
यश-अपयश आदि की अनुभूति के विषय एवं आत्मा, कर्म, ज्ञान, कैवल्य, मोक्ष आदि प्रज्ञा के विषय हैं। भाव बिम्ब
यह अमूर्त्त बिम्ब का ही उपरूप है। भाव-बिम्ब हृदय में स्थित भाव की ओर प्रमाता को प्रवृत्त करता है।
'हरिएसिज्ज' अध्ययन में हरिकेशी का तपस्वी, ज्ञानी, ध्यानी, मोनी तथा श्रेष्ठ मोक्ष साधक के रूप में उत्कृष्ट बिम्ब प्राप्त होता है
सोवागकुलसंभूओ गुणुत्तरधरो मुणी। हरिएसबलो नाम आसि भिक्खू जिइंदिओ।। उत्तर. १२/१
चाण्डाल-कुल में उत्पन्न, ज्ञान आदि गुणों को धारण करने वाला, धर्म-अधर्म का मनन करने वाला हरिकेशबल नामक जितेन्द्रिय भिक्षु था।
धम्मे हरए बंभे संतितित्थे अणाविले अत्तपसन्नलेसे। जहिंसि ण्हाओ विमलो विसुद्धो सुसीइभूओ पजहामि दोस।
उत्तर. १२/४६ अकलुषित एवं आत्मा का प्रसन्न-लेश्या वाला धर्म मेरा हद (जलाशय) है। ब्रह्मचर्य मेरा शांतितीर्थ है, जहां नहाकर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कर्मरज का त्याग करता हूं। प्रस्तुत प्रसंग में धर्म, ब्रह्मचर्य आदि तथा
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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