Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पुरुषो हि लोके तावत् समृद्धोऽपि सदा दरिद्रः।'३१ बाण के शब्दों में-'शक्याशक्य-परिसंख्यानशून्याः प्रायेण स्वार्थतृषः'२२-स्वार्थसिद्धि की तृष्णा के वशीभूत मनुष्य का संभव-असंभव का ज्ञान ही नष्ट हो जाता है। अपरिमित इच्छाएं
धरती सभी का पोषण कर सके, इतना सामर्थ्य उसके पास है, पर इच्छा एक की भी पूरी कर सके, ऐसा सामर्थ्य उसमें नहीं है अतः विकास और प्रगति के नाम पर इच्छा के विस्तृत आकाश में विहरण असन्तुष्टि का ही जनक है -
'इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया' उत्तर. ९/४८
इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं। कालिदास भी इच्छाओं की अनन्तता और अनिश्चितता के विषय में कहते हैं
'मनोरथानामगतिर्न विद्यते'२२ इच्छाएं इत्यलम् नहीं जानती। त्राण कहां?
धन व्यक्ति को सुख-सुविधा दे सकता है, भोगविलास के साधन उपलब्ध करा सकता है पर आनन्द नहीं। भोगोपभोग की सामग्री क्षणिक सांसारिक सुख का अनुभव करा सकती है, किन्तु आखिर में उसका परिणाम विरसता ही है। धन से तृप्ति की आशा मृगतृष्णा के समान है। ऐसा धन किसी के लिए शरण नहीं हो सकता। शरण वही है जिससे जीवन में शांति तथा वास्तविक सुख का अनुभव होता है, निर्भय-भाव उत्पन्न होता है तथा आन्तरिक बल जागता है। इसलिए --
'वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते' उत्तर.४/५
प्रमत्त मनुष्य धन से त्राण नहीं पाता। उत्तराध्ययन की यह सूक्ति काठकोपनिषत् से साम्य रखती है- 'न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः २४ धन से मनुष्य को तृप्ति नहीं हो सकती। जीवन का सत्य
प्रभु महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक कठिन तप किया। प्रकाश प्राप्त कर कुछ ऐसे शाश्वत जीवन-सत्यों का उद्घाटन किया जिनके पुदग्ल आज भी एक साधक हृदय को आंदोलित करते हुए अनुगूंजित हो रहे हैं -
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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