Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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'न य वित्तासए परं' उत्तर. २/२०
दूसरों को त्रास न दे। मुनि वायि-षट्जीवनिकाय रक्षक होता है। उसका कर्त्तव्य है कि वह अपने तप-तेज व साधना की शक्ति से दूसरों के लिए भय का वातावरण उत्पन्न कर उन्हें त्रस्त न करें।
सत्य की खोज अपने पर अपना शासन है। स्वयं खोजा हुआ सत्य साक्षात्कार-युक्त होता है। उत्तराध्ययनकार सत्य की शोध का माध्यम प्रस्तुत करते हैं
'अप्पणा सच्चमेसेज्जा' उत्तर. ६/२
स्वयं सत्य की गवेषणा करें। जैन-दर्शन पुरुषार्थवादी होने के कारण मानता है कि व्यक्ति-व्यक्ति को सत्य की खोज करनी चाहिए। दूसरों के द्वारा खोजा गया सत्य दूसरे के लिए प्रेरक व निमित्त कारण बन सकता है, उपादान नहीं। विश्वमैत्री का सूत्र सत्य-गवेषणा की खोज में साधन बन सकता है। विश्वमैत्री
संसार में सभी प्राणी जीना चाहते हैं, सुख चाहते हैं। किसी को यह अधिकार नहीं कि वह किसी के लिए कष्टप्रद सिद्ध हो। जीव वैर से बंधकर नरक को प्राप्त होता है, अतः सबके साथ मित्रवत् आचरण करना चाहिए, शत्रुवत् नहीं -
'मेत्तिं भूएसु कप्पए' उत्तर. ६/२
सब जीवों के प्रति मैत्री करें। इसी के समकक्ष-'मित्ति मे सव्वभुएसु, वेरं मज्झ न केणई'२८-संसार के किसी भी प्राणी के प्रति मेरा वैर न हो, सबके साथ मैत्री हो।
'सव्वे सत्ता अवेरिनो होन्तु, मा वेरिनो'२९-संसार के सभी प्राणी परस्पर अवैरी हो, आपस में शत्रु भाव न रखें। अभयदान
संसार में प्राणियों को मृत्यु का भय अत्यधिक है। जो किसी का प्राणहरण नहीं करता वह अभयदाता बन जाता है। तत्त्वदर्शी संयमी प्राणी जगत को अपने जैसा ही देखता है। वह अपनी ओर से सबको निर्भय बनाकर
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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