Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
राजीमती को यथाजात अवस्था में देख भग्न चित्त रथनेमि उनसे भोगों की याचना करता है। तब संयमिनी राजीमती तिरस्कारभरी वाणी में कहती है
गोवालो भंडवालो वा जहा तद्दव्वऽणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि सामण्णस्स भविस्ससि।। उत्तर. २२/४५
जैसे गोपाल और भाण्डपाल गायों और किराने के स्वामी नहीं होते, इसी प्रकार तू भी श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा। यहां 'भविस्ससि' क्रिया से निर्मित भावबिम्ब से गोपाल और भाण्डपाल के उपमान द्वारा रथनेमि के श्रमण जीवन का अस्वामित्व व्यंजित हो रहा है। क्योंकि संकल्प के वशीभूत होकर जो काम का निवारण नहीं करता वह श्रामण्य का स्वामी कैसे बनेगा?
ऋषि की रचना-अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में वासीचंदनतुल्यता का संदेश दे रही है --
सो एवं तत्थ पडिसिद्धो जायगेण महामुणी। न वि रुट्ठो न वि तुट्ठो उतमठ्ठगवेसओ। उत्तर. २५/९
वह महामुनि यज्ञकर्ता के द्वारा प्रतिषेध किये जाने पर न रुष्ट ही हुआ और न तुष्ट ही हुआ, क्योंकि वह उत्तम अर्थ मोक्ष की गवेषणा में लगा हुआ था। यहां 'समता भाव' का सुन्दर बिम्ब बन रहा है। प्रज्ञा-बिम्ब
उत्तराध्ययन की काव्यभाणा में प्रज्ञा-बिम्ब बहुलता से प्राप्त है। चक्रवर्ती, राजर्षि, राजकुमारों का पहले भोग भोगना, जीवन-मूल्य समझने के बाद प्रव्रज्या स्वीकार कर मोक्ष की ओर अग्रसर होना इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
__ ये प्रज्ञा-बिम्ब अनुकरणीय हैं। इनमें गहन चिन्तन और जीवन-मर्म का संदेश मानव-मात्र के लिए ग्रहण करने योग्य मोक्ष-तत्त्व के रूप में निहित है
चित्तो वि कामेहि विरत्तकामो, उदग्गचारित्ततवो महेसी। अणुत्तरं संजम पालइत्ता, अणुत्तरं सिद्धिगई गओ।। उत्तर. १३/३५
54
उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org