Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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कामना से विरक्त और उदात्त चारित्र तप वाला महर्षि चित्त अनुत्तर संयम का पालन कर अनुत्तर सिद्धिगति को प्राप्त हुआ।
यह प्रज्ञा-बिम्ब कामनाओं के जाल से मुक्ति पाने के प्रशस्त विचार की ओर जिज्ञासुओं को उन्मुख करता है। संयम और सिद्धिगति का बिम्ब दर्शनीय है।
आत्मतत्त्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाला प्रज्ञा-बिम्ब अद्वितीय
'नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा
अमुत्तभावा विय होइ निच्चो | ' उत्तर. १४/१९
आत्मा अमूर्त है इसलिए यह इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। यह अमूर्त है इसलिए नित्य है।
आत्मा की इन्द्रिय अगोचरता तथा नित्यता के प्रखर सत्य का उद्घाटक यह प्रज्ञा-बिम्ब संयम के लिए समुत्सुक पुत्रों और पिता के बीच चल रहे वार्तालाप के प्रसंग में प्रासंगिक प्रतीत होता है। साथ ही किसी दार्शनिक के लिए कितना विराट, जटिल पर मार्मिक बिम्ब है।
रचनाकार की रचना में 'यत्र तत्र सर्वत्र' शुभ विचारों का संपुट दिखाई देता है। प्रत्येक गाथा प्रायः भावों के ताने और विचारों के बाने से बुनी मजबूत पट सी है, जिसमें अन्तर - जगत के यथार्थ की गहरी रंगत सहृदयों को अपने में निमग्न किए रहती है
एवं लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य।
अप्पाणं तारइस्सामि तुभेहिं अणुमन्निओ || उत्तर. १९/२३
इसी प्रकार यह लोक जरा - मृत्यु से प्रज्वलित हो रहा है। मैं आपकी आज्ञा पाकर उसमें से अपने आपको निकालूंगा।
अनंतकाल से जरा-मरण के वेग में बहने के कारण संसार से विरक्ति का प्रज्ञाबिम्ब मृगापुत्र अन्तःकरण को उद्वेलित करता है और संसार की दयनीय स्थिति पाठक के दिल में संयम की भावना को उत्प्रेरित करने में समर्थ है।
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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