Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
विमलता, विशुद्धता आदि के भाव-बिम्बों के अतिरिक्त रूपकात्मक प्रयोग से जलाशय आदि का रूप-बिम्ब भी उपस्थित है।
कामभोग मुमुक्षु के लिए अहितकर है, सभी अनर्थों की जड़ है। कामभोग के परिणाम की दुःखद स्थिति का चित्रण करने वाला मार्मिक भाव-बिम्ब कवि के शब्दों में व्यक्त हुआ है।
खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।।
उत्तर. १४/१३ ये कामभोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुःख देने वाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देने वाले हैं, संसार-मुक्ति के विरोधी हैं और अनर्थों की खान हैं।
इस बिम्ब से यहां काम-भावना की भयंकरता का प्रतिपादन हुआ है। सुख-दुःख आदि के साथ संसारचक्र का बिम्ब भी उपस्थित है।
अत्यधिक लालसाएं उसी प्रकार मनुष्य के जीवन को सत्त्वहीन कर देती है जैसे फूल में कोई कीट घुसकर उसे गन्ध-पराग से रहित कर देता है
सव्वं जगं जइ तुहं सव्वं वावि धणं भवे। सव्वं पि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तवा। उत्तर. १४/३९
यदि समूचा जगत तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो भी वह तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा।
संसार में एक तृष्णा ही ऐसी है जो हमेशा युवा बनी रहती है, कभी वृद्धावस्था को प्राप्त नहीं होती- 'तृष्णैका तरुणायते' तृष्णा का यह भावबिम्ब यहां प्रभावी ढंग से प्रस्तुत हुआ है। इसमें पाठक की चेतना को संसार में अत्राणता की अनुभूति कराने का सामर्थ्य है।
यहां अत्राण जगत का रूप-बिम्ब प्राणियों को धर्म की शरण के लिए प्रेरित करता है।
तिव्वचंडप्पगाढाओ घोराओ अइदुस्सहा। महन्मयाओ भीमाओ नरएसु वेइया मए।। उत्तर. १९/७२
52
उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org