Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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अरई गंडं विसूइया आयंका विविहा फुसंति ते। विवडइ विद्धंसइ ते सरीरयं समयं गोयम! मा पमायए।।
उत्तर. १०/२७ पित्त रोग, फोड़ा-फुन्सी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्रघाति रोग शरीर का स्पर्श करते हैं। जिनसे यह शरीर शक्तिहीन और विनष्ट होता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।
रोगातंक का यह स्पर्श-बिम्ब शरीर की शक्तिहीनता और विनष्टता का सूचक है। . मृगापुत्र द्वारा नरक की भयंकर वेदनाओं को सहन करने का स्पर्शजन्य अनुभव निम्नलिखित स्पर्श-बिम्ब का है
जहा इहं अगणी उण्हो एत्तोणंतगुणे तहिं। नरएसु वेयणा उण्हा अस्साया वेइया मए।। उत्तर. १९/४७
जैसे यहां अग्नि उष्ण है, इससे अनन्त गुना अधिक दुःखमय उष्णवेदना वहां नरक में मैंने सही है।
गाथा में वर्णित नरक की वेदना का दाहक स्पर्श पाठक को भी अग्नि के समान दाहक-स्पर्श-बिम्ब प्रदान करता है।
अग्नि और नरक के रूप-बिम्ब का भी उपस्थापन हो रहा है। . स्थायी भाव के रूप में सम्राट् श्रेणिक के भीतर में सुप्त अनाथता की भावना को जागृत करने में अनाथी मुनि के 'महाराय', 'पत्थिवा' आदि उद्बोधन सक्षम बने हैं -
पढमे वए महाराय! अउला मे अच्छिवेयणा। अहोत्था विउलो दाहो सव्वंगेसु य पत्थिवा।|| उत्तर. २०/१९
महाराज! प्रथम-वय में मेरी आंखों में असाधारण वेदना उत्पन्न हुई। पार्थिव! मेरा समूचा शरीर पीड़ा देने वाली जलन से जल उठा।
अनाथी मुनि की आंखों में उत्पन्न वेदना का यह दाहक-स्पर्श सहृदय पाठक को भी दुःखजन्य अनुभूति से अभिभूत करता है।
सुखात्मक स्पर्श क्षणिक सुख की अनुभूति में व्यक्ति को निमग्न कर - अंत में कटु परिणाम को लक्षित करता है
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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