Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नरक की भयंकर वेदनाओं के विपाक-वर्णन में मृगापुत्र को अपने शरीर का मांस काट कर परमाधामी देवताओं द्वारा स्वयं उन्हीं को खिलाने का भयानक रस-बिम्ब यहां उजागर हो रहा है।
बीभत्स भाव को पैदा करने वाले गंध बिम्ब की प्रतीति भी प्राणी को पुनः वैसा दुष्कर्म नहीं करने का मौन संदेश दे रही है।
तुहं पिया सुरा सीहू मेरओ य महूणि या पाइओ मि जलंतीओ वसाओ रुहिराणि य।। उत्तर. १९/७०
इसी प्रकार तुझे सुरा, सीधु, मैरेय और मधु-ये मदिराएं प्रिय थीं, यह याद दिलाकर जलती हुई चर्बी और रुधिर पिलाना अप्रशस्त रस-बिम्ब की रचना कर रहा है। यहां घृणा के भाव बिम्ब का भी चित्रण हो रहा है।
रस के प्रति राग-द्वेष की भावना व्यक्ति को दुःखात्मक पीड़ा की ओर ले जाती है
एगंतरत्ते रुइरे रसम्मि अतालिसे से कुणई पओसं| दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो।।
उत्तर. ३२/६५ जो मनोज्ञ रस में एकान्त अनुरक्त रहता है और अमनोज्ञ रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है| जलकमलवत् मुनि की निर्लिप्तता का भावबिम्ब भी यहां द्रष्टव्य है। स्पर्श-बिम्ब
त्वचा द्वारा ग्राह्य गुण स्पर्श है। स्पर्श से त्वचा में होने वाले संवेदनों के सजीव वर्णन से स्पर्श-बिम्ब का सृजन होता है। चेतना को छकर रोमांचित कर देने वाली अनुभूति जगा देने में ही स्पर्श-बिम्ब की सफलता है।
स्पर्शजन्य आस्वाद का संवेदन मुख्यतः वहां संभव है, जहां विभिन्न पात्र परस्पर किसी राग-संवेदना के सूत्र में बंधे हों। उत्तराध्ययन में रागसंवेदना के प्रसंग तो नहीं के बराबर है किन्तु जीवन और जगत की कोमलताकठोरता आदि विविध आयामी स्पर्श की अनुभूतियों का बिंबांकन कहीं कहीं हुआ है
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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