Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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होता है। फिर स्पर्श के द्वारा व्यक्ति उसमें विद्यमान शीतलता का अनुभव करता है और उसकी अखण्ड धारा से उत्पन्न श्रुतिमधुर कल-कल ध्वनि श्रोत्रेन्द्रिय को आनन्द प्रदान करती है।
रूप की आसक्ति आखिर मानव को भी अकाल में यमराज के द्वार पहुंचा देती है
रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासी रागाउरे से जह वा पयंगे आलोयलोले समुवेइ मच्चुं।।
उत्तर. ३२/२४ जो मनोज्ञ रूपों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे प्रकाश-लोलुप पतंगा रूप में आसक्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।
। यहां पर 'रूप की मनोज्ञता' अभिलक्षित है। रूप-बिम्ब उत्कृष्ट है। गंध-बिम्ब
घ्राणेन्द्रिय के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले विषय गंध-बिम्ब की सर्जना करते हैं। शब्दों के व्यापार से सुगन्ध व दुर्गन्ध के मानस-संवेदन को उबुद्ध कर देना गंध-बिम्ब का कार्य है।
उत्तराध्ययन में पूतिकर्णी (सड़े कान वाली) कुतिया, सुगंधित जल आदि प्रसंगों के माध्यम से गंध-बिम्ब का सृजन हुआ है।
__ पूतिकर्णी कुतिया की भयंकर दुर्गन्ध पाठक के लिए घृणोत्पादक गंध-बिम्ब का सृजन कर रही है
जहा सुणी पूइकण्णी निक्कसिज्जइ सव्वसो। एवं दुस्सील पडिणीए मुहरी निक्कसिज्जई। उत्तर. १/४
सभी जगह से दुत्कारी हुई कुतिया का रूप-बिम्ब, अविनीत शिष्य की दुःशीलता और उसके तिरस्कार के भाव-बिम्ब का भी इस उदाहरण में चित्रण हुआ है।
तहियं गंधोदयपुप्फवासं दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा। पहयाओ दुंदुहीओ सुरेहिं आगासे अहो दाणं च घुटुं।।
उत्तर. १२/३६
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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