Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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राजकुमारी की आकर्षक आंखें, शरीर सौष्ठव, अंगों की परिपूर्णता आदि से उसके अनिन्द्य रूप लावण्य का प्रतिबिम्बन हो रहा है। 'सुसीला' शब्द से उसके उदात्त चरित्र की भी अभिव्यंजना हो रही है।
बिम्ब आरोपण द्वारा मूर्त-अमूर्त वस्तु को रूपायित करता है। चेतन पर अचेतन का आरोप विषय को सजीव बना देता है -
सव्वोसहीहि हविओ कयकोउयमंगलो । दिव्वजुयलपरिहिओ आभरणेहिं विभूसिओ ।। मत्तं च गंधहत्थिं वासुदेवस्स जेट्ठगं ।
आरूढो सोहए अहियं सिरे चूड़ामणि जहा || उत्तर.२२/९, १०
अरिष्टनेमि को सर्व औषधियों के जल से नहलाया गया । कौतुक और मंगल किए गए, दिव्य वस्त्र-युगल पहनाया गया और आभरणों से विभूषित किया गया। वासुदेव के मदवाले ज्येष्ठ गन्धहस्ती पर आरूढ़ अरिष्टनेमि सिर पर चूड़ामणि की भांति सुशोभित हुआ।
इन गाथाओं में रचनाकार की भाषा ने विवाह के समय अरिष्टनेमि के शृंगार का ऐसा दृश्य रूपायित किया है, जो पाठक को कभी ऊपर, कभी नीचे दृष्टि घुमाने को बाध्य कर देता है। यह रूप बिम्ब द्रष्टा के भीतर शांत चेतना को भी प्रवाहित कर रहा है।
यहां गंधबिम्ब, गत्यात्मक बिम्ब, यश का भाव - बिम्ब आदि के माध्यम से कवि की लेखनी संश्लिष्ट बिम्ब के सर्जन में प्रवृत्त हुई है। किसी एक अनुभूति को, रूपाकृति को केन्द्र बनाकर अन्तश्चेतना की विविध परतों को खोलने में कवि - चेतना सक्षम है।
एए य संगे समइक्कमित्ता सुहुत्तरा चेव भवंति सेसा | जहा महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा ।।
उत्तर. ३२/१८
जो मनुष्य इन स्त्री-विषयक आसक्तियों का पार पा जाता है, उसके लिए शेष सभी आसक्तियां वैसे ही सुतर हो जाती है जैसे महासागर का पार पाने वाले के लिए गंगा जैसी नदी ।
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यहां सर्वप्रथम गंगा की उज्ज्वल धारा आंखों के सम्मुख रूपायित होती है। गंगा का रूप बिम्बित होते ही उसके प्रति हृदय में श्रद्धा का संचार
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उत्तराध्ययन का शैली - वैज्ञानिक अध्ययन
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