Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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मूर्तीकरण के माध्यम से सहृदय प्रमाताओं की काव्यवस्तु की तदाकारता दूसरा अपेक्षित पक्ष है।
अलंकार, प्रतीक, मुहावरे, लोकोक्तियां, लाक्षणिक प्रयोग, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव और मूर्त पदार्थों के इन्द्रिय ग्राह्य स्वरूप के वर्णन से बिम्ब का निर्माण होता है।
काव्य का परिवेश जितना दुरूह, सूक्ष्म और जटिल होता है, बिम्ब की आवश्यकता उतनी ही अधिक होती है। दृष्य जगत का प्रभाव ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से मन तक पहुंचता है। इसलिए जितने प्रकार के प्रभाव होते हैं उतने बिम्ब बनते हैं। काव्यबिम्बों के मुख्य रूप से दो भेद हैं
१. बाह्य-इन्द्रिय ग्राह्य बिम्ब, २. अन्तःकरणेन्द्रिय ग्राह्य बिम्ब
पांच ज्ञानेन्द्रियों के आधार पर बाह्य इन्द्रिय ग्राह्य बिम्ब के पांच प्रकार हैं-श्रव्य-बिम्ब, चाक्षुष-बिम्ब, गंध-बिम्ब, रस-बिम्ब, स्पर्श-बिम्ब।
अन्तःकरणेन्द्रिय ग्राह्य बिम्ब के दो प्रकार हैं-भाव-बिम्ब, प्रज्ञाबिम्ब।
उत्तराध्ययन की काव्यभाषा अन्तश्चेतना को उद्घाटित करने तथा दार्शनिक, आचारमूलक एवं नीतिपरक तत्त्वों के विवेचन को बिम्बायित करने में सफल हुई है। इसकी प्रस्तुति में मानव-जीवन की विभिन्न अवस्थाओं तथा सिद्धान्तों ने प्रमुख भूमिका निभाई है। इसका मुख्य आधार दृश्य जगत रहा है। रचनाकार ने वर्ण्य विषय का इतना स्पष्ट प्रतिपादन किया है, जिससे पाठक के सामने वर्णनीय का रमणीय बिम्ब उपस्थित हो जाता है। चित्रात्मकता, भावात्मकता, ऐन्द्रियता, कल्पना आदि बिम्ब के तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं। यहां उसका अवलोकन-विश्लेषण काम्य है। बाह्य-इन्द्रिय ग्राह्य बिम्ब
मनुष्य की श्रवण, रूप, गंध, रस, स्पर्श, आस्वाद-संवेदक इन्द्रियों की रागात्मक संतृप्ति जिन काव्यबिम्बों द्वारा संभव है वे क्रमशः श्रव्य, चाक्षुष, घातव्य, स्वाद्य तथा स्पृश्य रूप ऐन्द्रिय-बिम्ब के अंतर्गत समाविष्ट
हैं।
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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