Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पास विशेषणों का विपुल भंडार एवं अभिव्यक्ति कौशल भी है। भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्त्व आध्यात्मिकता, धर्मपरायणता, कर्मफल, पुनर्जन्म, साध्वाचार, समिति-गुप्ति का पालन आदि वर्णन उत्तराध्ययन में विस्तार से हुआ है। इस देश की मनीषा ने त्याग को सर्वोच्च मानवीय गुण के रूप में स्वीकार किया है। उत्तराध्ययन में राजर्षियों की त्यागकथा वर्णित है। काव्य
और नैतिकता का समन्वय अन्यत्र दुर्लभ है। साहित्य के तत्त्व रस, छंद, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब, वक्रोक्ति आदि पदे-पदे देखे जा सकते हैं।
'धर्म एवं वैराग्य विषयक उपदेश द्वारा शांतरस की सरिता प्रवाहित हुई है -
अधुवे असासयम्मि, संसारंमिदुक्खपउराए। किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा।। (८/१)
'कहीं वीररस की प्रभावशाली योजना भी दिखाई देती है तो कहीं बीभत्स-रस का भी वर्णन है। प्रमाद से संचित ज्ञानराशि विस्मृत हो जाती है, छंदोबद्ध भाषा में कवि वाणी निःसृत हुई
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी......! (४/६)
धार्मिक तथ्यों को उजागर करने में, उनकी व्याख्या में प्रतीकात्मक रूपकों का प्रयोग किया गया है। यथा-इन्द्र-नमि में प्रव्रज्या विषयक, हरिकेशी में यज्ञ-विषयक, केशी-गौतम में धर्मभेदविषयक प्रतीकात्मक रूपकों का सुन्दर प्रयोग हुआ है।
उत्तराध्ययन के कर्ता ने अध्यात्म के गहन प्रदेश में प्रवेश की अनुगूंज से व्यक्तियों के मानस को अनुगुंजित किया। चित्तमुनि का हृदय ही मानों पद रूप में फूट पड़ा -
सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नÉ विडम्बियं। सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा।। (१३/१६) उद्घोष और आह्वान की भावना पूरी रचना में अन्तःस्फूर्त है - समयं गोयम! मा पमायए (१०/३६) नरिंद! जाई अहमा नराणं (१३/१८) पावसमणि त्ति वुच्चई (१७/३)
उत्तराध्ययन में शैलीविज्ञान : एक परिचय
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