Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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शरीर में सबसे ऊंचा स्थान शिर का है तथा लोक में सबसे ऊंचा मोक्ष/अपवर्ग है। इस समानता के कारण मोक्ष को 'सिर' कहा है।१३
'सिरसा' शब्द भी जीवन निरपेक्षता का प्रतीक है। सिर दिए बिना अर्थात् जीवन निरपेक्ष हुए बिना साध्य की उपलब्धि नहीं होती। ‘सिरसा' शब्द में 'इष्टं' साधयामि पातयामि वा शरीरम्' की प्रतिध्वनि है। कावोया (कापोती)
भिक्षु षदजीवनिकाय का रक्षक होने से स्वयं भोजन नहीं बनाता | गृहस्थ के द्वारा स्वयं के लिए बनाये हुए भोजन में से उसका कुछ अंश लेकर अपना जीवन निर्वाह करता है। जैन साहित्य में भिक्षुओं के भिक्षा का नामकरण पशुपक्षियों के नामों के आधार पर किए गए हैं। यथा-माधुकरीवृत्ति, कापोतिवृत्ति, अजगरीवृत्ति आदि। प्रस्तुत प्रसंग में कापोतिवृत्ति भिक्षु की भिक्षावृत्ति का प्रतीक
कावोया जा इमा वित्ती केसलोओ य दारुणो। दुक्खं बंभवयं घोरं धारेउं अ महप्पणो । उत्तर. १९/३३
यह जो कापोती-वृत्ति (कबूतर के समान दोष-भीरू वृत्ति), दारूण केशलोच और घोर-ब्रह्मचर्य को धारण करना है, वह महान आत्माओं के लिए भी दुष्कर है।
यह प्रतीक दोष-भीरू वृत्ति का संवाहक बनकर आया है। वृत्तिकार ने कापोतीवृत्ति का अर्थ किया है- कबूतर की तरह आजीविका का निर्वहन करने वाला। जिस प्रकार कापोत धान्यकण आदि को चुगते समय नित्य सशंक रहता है, उसी प्रकार भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनि एषणा आदि दोषों के प्रति सशंक होता है।१४ किंपागफलाणं (किम्पाकफलानां)
भोगों की विरसता के निदर्शन के लिए 'किंपाकफल' को प्रतीक बनाया गया है
जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुंदरो॥ उत्तर. १९/१७
जिस प्रकार किम्पाक फल खाने का परिणाम सुन्दर नहीं होता उसी प्रकार भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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