Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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मोणं (१५/१) का प्रचलित अर्थ मौन अर्थात् चुप रहना है किन्तु यहां यह शब्द मुनिव्रत के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
चिंता (२३/१०) तर्क अर्थ में प्रयुक्त। चाउरंतं (२९/सू. २३) वृत्तिकार द्वारा अंत का अर्थ अवयव।
भाषागत संस्कार की शैली भी उत्तराध्ययन में देखने को मिलती है। महावीर क्षत्रिय थे। नवें अध्ययन में युद्ध की भाषा में कहा-'अप्पाणमेव जुज्झाहि' (९/३५) क्षेत्र बदल गया किन्तु पहले की पृष्ठभूमि ‘आत्मना युद्धस्व' के रूप में मुखर हो रही है।
'अरिष्टनेमि, कृष्ण (अध्ययन २२), महावीर (अध्ययन २३) का उल्लेख जैनदर्शन में तीर्थंकर, वासुदेव की परम्परा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
आगम-परंपरा की दृष्टि से उत्तराध्ययन समवायांग आदि अंगग्रंथों से भी प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। विन्टरनित्स, शान्टियर आदि प्रसिद्ध विद्धानों ने उत्तराध्ययन की तुलना धम्म्पद, सुत्तनिपात, जातक, महाभारत आदि प्रसिद्ध जैनेत्तर ग्रंथों से की है।
इस प्रकार उत्तराध्ययन केवल उपदेशात्मक या दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादक ग्रंथ ही नहीं अपितु श्रेष्ठ काव्य के सभी अंगों से परिपूर्ण है। जीवन-सागर की किसी भी भावलहर से कविमानस शायद ही अछूता रहा होगा। माघ की यह उक्ति 'क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः' इस ग्रंथ के पद-पद पर घटित है।
नव मल्ली नव लिच्छवी देशों के सम्राटों का सोलह प्रहरी पौषध में सोलह प्रहर तक लगातार एकाग्रतापूर्वक महावीर की अंतिम देशना का श्रवण करते रहना-उत्तराध्ययन की जीवन में उपयोगिता का इससे अच्छा प्रमाण और क्या होगा?
उत्तराध्ययन का समग्र रूप से अनुशीलन, विश्लेषण अभी नहीं हुआ है। उसकी उपयोगिता व आवश्यकता अक्षुण्ण है।
आध्यात्मिक ग्रंथ होते हुए भी साहित्यिक एवं काव्यशास्त्रीय प्रविधियों का भरपूर प्रयोग उत्तराध्ययन में हुआ है।
उत्तराध्ययन में शैलीविज्ञान : एक परिचय
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