Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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घृतसिक्त-अग्नि को निर्वाण का प्रतीक बनाकर कवि कहना चाहता है कि पलाल, तृण आदि के द्वारा अग्नि उतनी दीप्त नहीं होती जितनी घृत के सिंचन से होती है। घृत से अग्नि प्रज्वलित होती है, बुझती नहीं। अत: निर्वाण का अर्थ भी यहां 'बुझना' की अपेक्षा 'दीप्ति' अधिक उपयुक्त है। जिसका जीवन धर्मानुगत होता है, वह आत्मरमण से निरन्तर सुख को प्राप्त करता हुआ दीप्तिमान बनता है। भारुंडपक्खी (भारण्डपक्षी)
काव्य-जगत में स्वछन्द व्यक्तित्व के लिए प्राय: 'पक्षी' प्रतीक का प्रयोग होता है । यहां अप्रमत्त अवस्था का प्रतीक भारण्डपक्षी है। जैन साहित्य में यह व्यापक स्तर पर प्रचलित प्रतीक है
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी न वीससे पंडिए आसुपन्ने। घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं भारुंडपक्खी व चरप्पमत्तो॥ उत्तर. ४/६
आशुप्रज्ञ पंडित सोए हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत रहे। प्रमाद में विश्वास न करे। काल बड़ा घोर होता है। शरीर दुर्बल है। इसलिए भारण्डपक्षी की भांति अप्रमत्त होकर विचरण करे। कवि का प्रतीक संदेश स्पष्ट है कि मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं है, क्षण भर भी प्रमाद मत करो। प्रमादी को चारों ओर से भय है। अप्रमादी अभय होकर विचरण करता है। अत: भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर विचरण करो।
यहां अप्रमत्तता को उद्घाटित करने के लिए 'भारण्डपक्षी' को प्रतीक बनाया गया है। पत्तं (पात्रं)
पक्षी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाला तथा निरन्तर उसके साथ रहने वाला उपकरण 'पत्त' भिक्षु के भिक्षापात्र का प्रतीक बन गया है -
सन्निहिं च न कुव्वेज्जा लेवमायाए संजए। पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिव्वए ॥ उत्तर. ६/१५
संयमी मुनि पात्रगत लेप को छोड़कर अन्य किसी प्रकार के आहार का संग्रह न करे। पक्षी अपने पंखों को साथ लिए उड़ जाता है वैसे ही मुनि अपने पात्रों को साथ ले, निरपेक्ष हो, परिव्रजन करें।
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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