Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Author(s): Amitpragyashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati
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जगई (जगती)
पृथ्वीको विनीत शिष्य का प्रतीक बनाया गया है । पृथ्वी एक प्रतीक है 'सर्वंसहा ' का, 'क्षमाशीलता' का, सभी के आधार का । शास्त्रों में स्थानस्थान पर कहा गया कि मुनि को पृथ्वी के समान सहनशील होना चाहिए। यहां विनीत शिष्य का प्रतीक बनाकर कहा गया
हवई किच्चाणं सरणं भूयाणं जगई जहा || उत्तर. १/४५
जिस प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए आधार होती है, उसी प्रकार वह आचार्यों के लिए आधारभूत बन जाता है ।
सभी प्राणियों को आधार प्रदान करने के कारण पृथ्वी सबकी आश्रयदाता है, सबका आधार है। पृथ्वी की अनवरत आधारशीलता को आचार्य के लिए विनीत शिष्य के आधार का प्रतीक मानकर शिष्य को पृथ्वी से भी अधिक आधारभूत होने का कवि - इच्छित प्रतीक की ये पंक्तियां साक्ष्य हैं। दोगुंछी (जुगुप्सी)
अहिंसक के प्रतीकरूप में प्रयुक्त 'दोगुंछी' शब्द का निंदा करने वाला, घृणा करने वाला आदि अर्थों में साहित्य-क्षेत्र में पर्याप्त प्रचलन है । कवि ने इस प्रतीक के प्रचलित अर्थ को थोड़ा विस्तार देकर, उसे भावार्थप्रधान बनाकर उस शब्द के द्वारा प्राणीमात्र के प्रति अहिंसक व्यवहार की अभिव्यंजना कराई
है
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तओ पुट्ठो पिवासाए दोगुंछी लज्जसंजए । सीओदगं न सेविज्जा वियडस्सेसणं चरे ॥
उत्तर. २/४
अहिंसक या करुणाशील लज्जावान संयमी साधु प्यास से पीड़ित होने पर सचित्त पानी का सेवन न करें, किन्तु प्रासुक जल की एषणा करें।
'दोगुंछी' का संस्कृत रूप 'जुगुप्सी' गुपू रक्षणे धातु से निष्पन्न है । उसका शाब्दिक अर्थ है - घृणा करने वाला | मुनि हिंसा से, अनाचार से घृणा करता है। प्यास से आक्रान्त होने पर भी सचित जल का सेवन उसके लिए अनाचीर्ण होने से त्याज्य है, अहितकर है। वह परीषह सहन कर लेता है किन्तु ऐसी हिंसा से घृणा करता है। यहां 'दोगुंछी' शब्द मुनि की अहिंसक वृत्ति का, अविराम साधना का प्रतीक है, जो साधु की सही पहचान की प्रतीति कराने में समर्थ है।
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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