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अंगशास्त्रों के नामोल्लेख किए हैं, ठीक उसी प्रकार किस किस अंग का कौन कौन सा उपांगशास्त्र है, ऐसा नहीं लिखा है । इससे भी यह कल्पना अर्वाचीन ही सिद्ध होती है | हाँ! यह अवश्य मानना पड़ेगा कि यह कल्पना अभयदेव सूरि या मलयगिरि आदि वृत्तिकारों से पूर्व की है । क्योंकि उपांगों के वृत्तिकार वृत्ति की भूमिका में उस उपांग का किस अंग से संबंध है, इस प्रकार का उल्लेख स्फुट रूप से करते हैं । अतः वृत्तिकारों के समय से भी यह कल्पना पूर्व की है; इसलिए यह कल्पना श्वेताम्बर आम्नाय में सर्वत्र प्रमाणित मानी गई है।
विधिविरुद्ध स्वाध्याय के दोष जिस प्रकार सातों स्वर और रागों के समय नियत हैं-जिस समय का जो राग होता है, यदि उस समय पर गायन किया जाय, तो वह अवश्य आनन्दप्रद होता है, और ' समयविरुद्ध राग अलापा गया तब वह सुखदाई नहीं होता; ठीक इसी प्रकार शास्त्रों के स्वाध्याय के विषय में भी जानना चाहिए । और जिस प्रकार विद्यारम्भ संस्कार के पूर्व ही विवाह संस्कार और भोजन के पश्चात् स्नानादि क्रियाएँ सुखप्रद नहीं होतीं, और जिस प्रकार समय का ध्यान न रखते हुए असंबद्ध भाषण करना कलह का उत्पादक माना जाता है, ठीक उसी प्रकार बिना विधि के किया हुआ स्वाध्याय भी लाभदायक नहीं होता । और जिस प्रकार लोग शरीर पर यथा स्थान वस्त्र धारण करते हैं-यदि वे बिना विधि के तथा विपरीतांगों में धारण किए जाएँ, तो उपहास के योग्य बन जाते हैं । ठीक इसी प्रकार स्वाध्याय के विषय में भी जानना चाहिए । अतः सिद्ध हुआ कि विधिपूर्वक किया हुआ स्वाध्याय ही समाधिकारक माना जाता है । जिस प्रकार उक्त विषय विधिपूर्वक किए हुए ही 'प्रिय' होते हैं, ठीक उसी प्रकार स्वाध्याय भी विधिपूर्वक किया हुआ ही आत्मविकास का कारण होता है । प्रस्तुत शास्त्र की पहली दशा में उस विषय का स्फुट रूप से वर्णन किया गया है ।
स्वाध्याय का समय स्वाध्याय के लिए जो समय आगमों में बताया गया है, उसी समय स्वाध्याय करना चाहिए, किन्तु अनध्याय काल में स्वाध्याय वर्जित है ।
मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी स्वाध्याय के अनध्याय काल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । क्योंकि वे लोग वेद के भी अनध्यायों का उल्लेख करते हैं । इसी प्रकार
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