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श्री आचारांगसूत्रम्
चतुर्विध देशना
सुरविरचित भगवन्त की, धर्मसभा बेजोड़ ।
देव - असुर-नर आदि में, सुनने की हो होड़ । । ११ । ।
चार विधा की देशना देते हैं इक साथ ।
किसको कैसी देशना, यह श्रोता के हाथ ।। १२ ।।
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प्रथम कथा आक्षेप की, जिनपथ का विस्तार । भव्य लोग हिय में बसे, श्रद्धा से स्वीकार ।। १३ ।।
द्वितीय कथा निक्षेप की, द्वय मत ले पहचान । पर मत मिथ्या निरखकर, जिनमत श्रद्धा ठान ।।१४।। तृतीय कथा संवेग रस, धर्मभाव अनुराग । द्वय भव वांछा परिहरे, जीवन हो बेदाग । । १५ ।। अन्त कथा निर्वेद की, सुकर्म या दुष्कर्म । बिन भोगे नहिं छिन्न हो, करो पाप से शर्म । । १६ ।। श्री सम्यक् श्रुत ज्ञान पद, अवनीतल आधार । मुनि 'सुशील' भावों सहित, वन्दन बारम्बार । । १७ ।। जिनवाणी माहात्म्य
जिनवाणी कलिमल हरण, माँ दुर्गे जगदम्ब । पाप निशाचर मर्दिनी, पाप हरे अविलम्ब । । १८ । । निष्कारण करुणा करें, महावीर जिनराज । शान्त सुधारस देशना, फरमाते सरताज । । १९ । । सुर-नर- पशु सुनकर सभी, उन्नत भाव विशेष । अघहारी जिनवर वचन, मंगलमय उपदेश ।। २० ।। जिनवाणी अतिशय अधिक, अमृत रस उपमान। खेती हो सम्यक्त्व की, फल कैवल्य प्रधान ।। २१ । । जिनवाणी भूषण अहो ! मण्डित भाव नगीन ।
भव्य हृदय शोभित अधिक, जिनका अडिग यकीन ।। २२ ।।