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श्री आचारांगसूत्रम्
अथवा उसका द्रव्य-धन, होय अचानक नष्ट । निमित्त बहुत प्रकार से, ज्ञानी भाव स्पष्ट ।।१३।।
सम्पति उसकी एक दिन, जलकर होती राख । फिर क्या रहती बाद में, वित्तहीन की साख ।।१४।। क्रूर कार्य करता अरे, अन्य जनों हित आप। पापोदय से मूढ़ वे, करते घोर विलाप । । १५ ।।
श्रेय-प्रेय का तनिक भी रहे नहीं कुछ बोध ।
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होता हीन विवेक से, करे न सत् की शोध । ।१६।।
तीर्थंकर भगवन्त का, निश्चय यह फरमान ।
कब समर्थ संसार से तिर जाये भव यान । । १७ । ।
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तीर्थंकर भगवन्त का, निश्चय यह उद्घोष । अरे ! बाल संसार से, रखते कभी न होश । । १८ ।। तीर्थंकर भगवन्त के, वचन यही अति गूढ़ । भवसागर के तीर पर नहीं पहुँचता मूढ़ । । १९ ।।
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द्विपद-चतुष्पद भोग सुख, ग्रहण करे आसक्त । जिनमार्ग में स्थित नहीं, बाल जीव मन सक्त ।। २० ।।
अज्ञानी नर है वही, संयम बिन व्यवहार । असंयमाश्रय ही रहे, निष्फल नर अवतार । । २१ । । • ज्ञानी - अज्ञानी
मूलसूत्रम्
उद्देसो पासगस्स णत्थि, बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमय दुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्टं अणुप रियट्ठइ त्ति बेमि ।
पद्यमय भावानुवाद
ज्ञानवान को है नहीं, आवश्यक उपदेश । मुनि 'सुशील' संकेत से समझे अर्थ विशेष । । १ ।।