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श्री आचारांगसूत्रम्
राग-द्वेष से मुक्त जो, देख-देख संसार । रे! साधक मतिमान तू, शीघ्रतया परिहार ।।२।। संयम-साधन युक्त जो, तजकर विषय कषाय । सूरि 'सुशील' संक्षेप में, कहा मोक्ष सदुपाय ।।३।।
दूसरा उद्देशक
• सम्यक्त्व - महिमा •
मूलसूत्रम् -
जाइं च वुड्ढिकरं च इहज्ज ! पासे, भूएहिं जाण पडिलेह सायं । तम्हा तिविज्जो परमंत्ति णच्चा, सम्मत्तदंसी ण करेइ पावं । ।
पद्यमय भावानुवाद
हे मानव! तुम आज ही, क्षणभर करो न देर । जन्म- -मरण दुख ज्ञात कर, बन जायेगी खैर । । १ ।
सर्व चराचर जगत में, तू अपना सुख देख | यह चिन्तन कर लीजिए, रखकर परम विवेक । । २ । । मोक्ष मार्ग पहचान तू, रे साधक विद्वान् । पाप कर्म से विरत हो, बनकर समकितवान । । ३ । । ज्ञाता विद्या तीन का, साधक वही सुजान । पूर्व जन्म के ज्ञान सँग, जन्म-मरण भी जान ।।४।।
पर - जीवों के दुक्ख-सुख, निज तुलना पहचान । तीन बात के ज्ञान को, श्रमण त्रिविद्या जान । । ५ । । बन्धन परिणाम •
मूलसूत्रम् -
उम्मुंच पासं इह मच्चिएहिं, आरंभजीवी उभयाणुपस्सी । कामेसु गिद्धा णिचयं करंति, संसिच्चमाणा पुणरिंति गब्धं । ।