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श्री आचारांगसूत्रम्
पद्यमय भावानुवाद
अशन-पान से देह की, बल-वृद्धि हो जाय। यों ही साधक ज्ञान से, श्रद्धा-भक्ति बढ़ाय।।१।। हो आहार अभाव तो, बनता देह ग्लान। फिर भी श्रद्धा-भक्ति में, चढ़े भाव सोपान ।।२।। वीर धीर ज्ञानी श्रमण, कर कायरता दूर। श्रमण धर्म के समर में, करे कर्म को चूर।।३।। कितने कायर श्रमण तो, परिषह से घबराय। होते शिथिल सुधर्म में, शासन संघ लजाय।।४।।
चौथा उद्देशक
• तपाराधना. मूलसूत्रम्
लाघवियं आगममाणे, तवे से अभिसमण्णा गए भवइ। पद्यमय भावानुवाद
अल्प वस्त्र धारण करे, अल्प अचेलक होइ। परित्यागी मुनि वस्त्र का, सहज करे तप सोइ ।।१।। परिषह सहने में बने, सक्षम जो मुनिराज। आगम में जिनवर कहा, सुगम तपस्या-साज।।२।।
• आज्ञाराधना. मूलसूत्रम्जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिज्जा।।२११।। पद्यमय भावानुवाद
तीर्थंकर भगवन्त का, जो-जो है फरमान। उसी रूप आचरण कर, साधक तू मतिमान।।१।। चाहे हो निर्वस्त्र मुनि, या कि वस्त्र हो पास। रहे सन्त समभाव में, करे कर्म का नाश।।२।।