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आठवाँ अध्ययन : विमोक्ष
• मर जाना मंजूर • दोष सेवन निषेध
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मूलसूत्रम् -
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ पुट्ठो खलु अहमंसि णालमहमंसि सीयफासं अहिया सित्तले से वसुमं सव्व - समण्णागय-पंणाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे । तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए । तत्थावि तस्स कालपरियाए । से वि तत्थ विअंतिकारए । इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं । त्ति बेमि । पद्यमय भावानुवाद
ऐसा होइ प्रतीत जब, परिषह सहे न जायँ 1 जागृत करे विवेक को, कबहू नहिं घबराय । । १ । । सहन करे उपसर्ग मुनि, रक्खे समता धीर । विचलित नहिं उपसर्ग से, कहते हैं प्रभु वीर । । २ । ।
पाये मुनिवर कष्ट यदि, उदय हुआ तन २ अथवा पीड़ित काम से, इन्द्रियँ चाहें भोग । । ३ । ।
नारी आये सामने, करना चाहे नष्ट | मुनिवर भी असमर्थ हों, आशंका हो भ्रष्ट ।।४।। ऐसे क्षण में मुनि करे, मरण वरण हितवन्त । मगर नहीं चारित्र में, दोष लगाये सन्त । । ५ । । यह भी मरण कि काल का, कहलाये पर्याय । धीर-वीर साधक श्रमण, देता कर्म मिटाय ।। ६ ।। मर जाना मंजूर हो, नहीं लगाना दोष । मुनि 'सुशील' करता यही, अन्तरंग उद्घोष । । ७ ।। मरण-श्रेय लेकर मरे, जीवन कर बेदाग । यही श्रेयस्कर भावना, प्राप्त मोक्ष सौभाग । । ८ । ।