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नवाँ अध्ययन : उपधान श्रुत
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छन्द कुंडलिया लाढ़ देश जाते हुए, पथ-उपसर्ग अपार । कंटक-कंकड़-घास मग, ठंडी-गरम बयार।। ठंडी-गरम बयार, काटते डाँस नुकीले। इत काँटों की चुभन, और मच्छर जहरीले।। यह विहार का कष्ट, प्रभु सहनशील थे गाढ़। जहँ थे ये उपसर्ग, वह देश कहाये लाढ़।।१।।
॥छन्द दोहा।। भूमि वज्र और शुभ्र थी, दुर्गम-अगम प्रदेश।
इसी क्षेत्र में कर गये, त्रिशलानंद प्रवेश।।२।। मूलसूत्रम्
लाढेहिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु। अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिसिंसु णिवतिंसु।।
॥ सोरठा।। निष्ठुर थे सब लोग, रूखा-सूखा अशन था। त्यागे थे प्रभु भोग, नहि मिलता तो भी कुशल।।१।।
॥दोहा।।. श्वान शिकारी काटते, इधर-उधर से दौड़।
डंडे मारें दुष्ट जन, कष्ट सहे हर मोड़।।२।। मूलसूत्रम्
अप्पे जणे णिवारेइ लसणाए सुणए डसमाणे।
छुच्छुकारेंति आहंसु समणं कुक्कुरा दसंतु त्ति।। पद्यमय भावानुवाद- -....
कुछ जन कुत्ते रोकते, बहुजन दे छुछकार । अनार्य जन करते. यही, उन्हें पुकार-पुकार ।।