________________
* १५०*
... -- -- श्री आचारांगसूत्रम्
कि भिक्षुक-भिक्षु-अतिथि आदि भी, मग में सब दिख जाते। बिल्ली-कुत्ते दिखें मार्ग में, प्रभु नहिं दूर भगाते ।।२।। कि प्रभु को देख उड़ें न ये सब, अतः कि धीरे चलते। हो न किसी को त्रास कि उनसे, अनुकंपा उर रखते।।३।।
।।दोहा।। प्रभु आहार गवेषणा, अनुकंपा से पूर।
बसी अहिंसा योगत्रय, थे प्रभु करुणा भूर।।४।। मूलसूत्रम्
अवि सुइयं व सुक्कं वा सीयपिंडं पुराणकुम्मासं।
अदु बक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धए दविए।। पद्यमय भावानुवाद
चाहे जैसा अशन हो, जो मिलता सो खात। षट्रस व्यंजन या कि फिर, ठंडा बासी भात ।।१।। पूरा या आधा मिले, या नहिं मिलता स्वल्प। राग-द्वेष से रहित प्रभु, यही अशन का कल्प।।२।।
•ध्यान-साधना. मूलसूत्रम्
अवि झाति से महावीरे आसणत्थे अकुक्कुए झाणं।
उड्ढे अहे य तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे।। पद्यमय भावानुवाद
उकडू गोदोहन कहें, उस आसन में ध्यान। स्थिर स्थित बैठते, महावीर भगवान।।१।। ऊँचे-नीचे लोक में, जीव आदि थे लक्ष्य। आत्म-समाधि डूबे रहे, राग-द्वेष कर भक्ष्य।।२।।