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द्वन्द्वों के इस जगत् में, चीजें इष्ट-अनिष्ट | कटुवाणी निन्दा वचन, स्तुति वाणी मिष्ट । । २ । । फूल - शूल दुर्गंध सँग, सुखकर गन्ध सुगन्ध । सब में समता - रमण प्रभु, नहिं द्वन्द्वों के बंध । । ३ । ।
मूलसूत्रम् -
श्री आचारांगसूत्रम्
अहियासए सया समिए फासाइं विरूवरूवाइं । अरइं रइं अभिभूय रीयइ माहणे अबहुवाई | | ३३ ।।
पद्यमय भावानुवाद
समिति-युक्त होकर रहे, सम्यक् वृत्ति - प्रवृत्ति । थे सहनशील स्पर्श बहु, अरु थी पूर्ण विरक्ति । । १ । । जीत लई थी अरति - रति, महमाहन प्रभु वीर । अल्प-स्वल्प वे बोलते, मनहु क्षमा तसवीर । । २ । ।
मूलसूत्रम् -
सजणेहिं तत्थ पुच्छिंसु एगचरा वि एगदा राओ । अव्वाहिए कसाइत्था पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे । । ३४ । ।
पद्यमय भावानुवाद
खड़े अकेले ध्यान में आकर देखें लोग । भाँति-भाँति के प्रश्न कर, करें विघ्न संयोग । । १ । ।
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कभी रात में आय के लोग पूछते कौन । यहाँ खड़े क्यों शून्य में, प्रभु का उत्तर मौन । । २ ।। चिढ़ जाते थे लोग तब, करते प्रभु पर क्रोध । और पीटते थे उन्हें, नहिं प्रभु में प्रतिशोध । । ३ । ।
मूलसूत्रम् -
अयमंतरंसि को एत्थ अहमंसि त्ति भिक्खू आहट्टु । अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए सकसाइए झाति । । ३५ । ।