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पाँचवाँ अध्ययन : लोकसार
सिंह तुल्य घर त्याग कर, दीक्षा ले स्वीकार । मृगांक सम संयम अहा ! पाले निर अतिचार । । ५ । । प्रथम भंग से युक्त जो, वे ही श्रमण महान्। गौतम धन्नादिक अहो ! पंचानन उपमान । । ६ । । सिंह तुल्य घर त्याग कर, बनते अन्त सियार । संयम हीरा फेंककर करें विषय से प्यार ।। ७ । ।
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उक्त भंग से युक्त जो, वे मुनि महा मलीन । कंडरीक सम ये श्रमण, अन्त भोग में लीन । । ८ । । कषाय विजय
मूलसूत्रम् -
इमेण चैव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ ?
पद्यमय भावानुवाद
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साधक कर्म - शरीर से युद्ध करो दिन-रात । नहीं लोभ हो अन्य से, कर ले मानव ज्ञात ।।
भाव युद्ध प्रबोध
जुद्धारिहं खलु दुल्लहं ।
मूलसूत्रम् -
पद्यमय भावानुवाद
भावयुद्ध के योग्य तनु, औदारिक कहलाय । निश्चय दुर्लभ प्राप्त हो, कुशल पुरुष फरमाय ।। १ ।। जीतो साधक समर तुम, जन्मजात रिपु मार । सभी शत्रु तुझमें छिपे, कभी न होगी हार । । २ । । तप संयम नर देह से, हो जाये हितकार । अन्तर अरि जन जीत तू, यह अवसर इस बार । । ३ । । सुयश आदि की कामना, सुन्दर प्राप्त शरीर । दुरित न करना लोक में, जो चाहे भव तीर । ।४ । ।
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