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पाँचवाँ अध्ययन : लोकसार
*१०३ * -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.मानव चार प्रकार के, बतलाते भगवान। इन चारों में कौन तुम, करो मनन मतिमान।।६।। सम्यक् श्रद्धा मनुज की, शंका नहिं तिलमात। असम्यक् भी सम्यक् हो, भाव तुल्य फल पात ।।७।। अगर असम्यक भावना, रखता जो इन्सान। सम्यक् भी असम्यक् हो, भाव तुल्य फल जान।।८।। करो-करो उद्यम करो, संयम में दिन-रात। साधक पाये श्रेष्ठ गति, फरमाते जिननाथ।।९।। संयम-भाव शिथिलता, भाव-शक्ति कमजोर। नीच गति में जीवात्मा, पाये कष्ट कठोर ।।१०।। रे! साधक तू अल्प भी, शिथिल भाव परिहार। क्षणभर कर न प्रमाद तू, श्री जिनवर उद्गार ।।११।।
.अहिंसा की व्यापकता. मूलसूत्रम्तुमंसि णाम तं चेव जं, हंतव्वं ति मण्णसि, तुमसि णाम तं चेव जं अज्जावेयव्वंति मण्णसि, तुमसि णाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मण्णसि, एवं जं परिघेत्तव्वं ति मण्णसि, जं उद्दवेयव्वं ति मण्णसि, अंजू चेयं पडिबुद्ध जीवी, तम्हा ण हंता णवि घायए, अणुसंवे यणमप्पाणेणं जं हंतव्व णाभिपत्थए। पद्यमय भावानुवाद
रे! रे! हिंसक मनुज तू, हिंसा करे न अन्य। मुनि 'सुशील' संदेश यह, मारे तू पशु वन्य।।१।। देना चाहे कष्ट तू, वध-पीड़ा अरु मार। क्यों कर जाने उचित तू, नर-पशु-मूढ़-गँवार ।।२।। तुझे दुक्ख जब प्रिय नहीं, पर को क्यों प्रिय होइ। तू भी जाने सत्य यह, पाप-बीज क्यों बोइ।।३।। जिस काया का हनन तू, करता बारम्बार । उस काया में अनंत ही, तेरा जन्म विचार।।४।।