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श्री आचारांगसूत्रम्
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जिसको चाहे मारना, अरे स्वयं हो आप। रे! रे! हिंसक शीघ्र ही, कर ले पश्चात्ताप।।५।। अनुकम्पा चिन्तन करो, आत्मावत् सब जीव। मानव-जीवन सफल हो, यही जिनागम नींव।।६।। ज्ञानी नर होता सरल, जागरूक वह धन्य। हनन स्वयं करता नहीं, करवाये नहिं अन्य।।७।। अरे स्वयं को भोगना, हिंसा का परिणाम। अतः किसी को मार मत, मानव बन निष्काम।।८।।
छठा उद्देशक
• दुर्गति मार्ग. मूलसूत्रम्अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे णिरुवट्ठाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं, तइदिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे। पद्यमय भावानुवाद
कुछ तो ऐसे मनुज हैं, चलते जिन-विपरीत। पालन में कुछ आलसी, दोनों करें फजीत ।।१।। उद्यम करें कुमार्ग में, आलस करें सुपंथ। बढ़े जीवन में न ये, कहते आगम ग्रंथ।।२।। जो-जो आज्ञा दे रहे, तीर्थंकर भगवान । मानव कर अवहेलना, कुमार्ग पर गतिमान।।३।। कोई जीव प्रमाद से, आज्ञा देते टाल। लेकिन चलें कुपंथ पर, अरु होते बेहाल।।४।। दो कारण दुर्गति कहे, श्री जिनवर अरिहन्त। जिन आज्ञा पालन करो, हो जाये भव-अन्त।।५।।