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श्री आचारांगसूत्रम्
उक्त श्रमण संसार से हो जायेगा पार । मुक्त विरत ही जानिए, आगम के अनुसार । । ४ । । • श्री आचार्य कृपा •
मूलसूत्रम् -
विरयं भिक्खुं रीयंतं चिरराओसिअं अरई तत्थ किं विधारए ? संधेमाणे समुट्ठिए, जहा से दीवे असंदीणे एवं से धम्मे आयारिय-पदेसिए, ते अणवकंखमाणा पाणे अणइवाएमाणा दइया मेहाविणो पंडिया, एवं सिं भगवओ अणुद्वाणे जहा से दिया पोर एवं ते सिस्सा दिया य ओ य आणुपुवेण वाइय । त्ति बेमि ।
पद्यमय भावानुवाद
होइ असंयम भिन्न जो, वाहक पंथ प्रशस्त । दीर्घकाल तक साधना, आत्मरमण में मस्त । । १ । । फिर भी कर्म प्रभाव से, संयम जीवन भंग । मोहित होता विषय से, गिरता पाइ कुसंग । । २ या फिर कर-कर साधना, निर्मल भाव प्रधान । यथाख्यात चारित्र को, पाये सन्त महान् । । ३ । । ऐसे मुनिवर जगत् में, करते पर - उपकार । भव जीवों को मोक्ष हित, परम सहायक सार । । ४ । । शरणभूत माना गया, सागर द्वीप समान । वैसे मुनिवर जगत हित, परम सहायक जान । । ५ । । विरक्त प्रिय मतिमान मुनि, शोभित संघ विशेष । पंडित मंडित सुयश अति, कहते यही जिनेश । । ६ । । जो मानव जिनधर्म पर, उद्यम करे न कोय। करते रक्षा आत्म की, सूरि सहायक होय । । ७।।
जैसे खग निज बाल का, रखता निश-दिन ध्यान । तब तक वह पालन करे, जब तक हो न उड़ान । । ८ । ।