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....- श्री आचारांगसूत्रम्
अरे लाड़ले हम चलें, तुझ आज्ञा अनुसार। लेकिन करो न त्याग घर, इतनी-सी मनुहार।।३।। एक मात्र इस जगत् में, तेरा ही विश्वास। तू भी धोखा दे रहा, फिर किसकी हो आश।।४।। जो नहिं करता त्याग घर, तात-मात-परिवार। वह कैसे मुनिवर बने, पार न हो संसार ।।५।। उक्त कथन सुनकर अरे, उन पर धरे न ध्यान। ज्ञानी जन गृहवास में, रहते नहीं विधान।।६।। जो मुनि मन धारण करे, सम्यक् भाव प्रकार। निश्चय वह संसार से, हो जायेगा पार ।।७।।
उद्देशक
• आतुर दशा. मूलसूत्रम्आउरं लोगमायाए चइत्ता पुव्व संजोंग हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा जाणित्तु धम्मं जहा तहा, अहेगे तमचाइ कुसीला। पद्यमय भावानुवाद
रे मानव इस लोक का, सम्यक् रूप विचार। ब्रह्मचर्य धारण करे, उपशम भाव उदार ।।१।। आतुर प्राणी भोग से, अरे पूर्व संयोग। सूरि 'सुशील' पुण्य दशा, ध्याता तब शुभ योग ।।२।। श्रावक व्रत धारण करे, अथवा मुनिव्रत धार। मगर मोह के उदय से, गिरे गर्त संसार ।।३।। पालन धर्म समर्थ जो, कहलायें कब योग्य। हो कुशील अघकुशल हो, अशुभकर्म के भोग्य।।४।।