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श्री आचारांगसूत्रम्
सद्गुरु वाणी सुन अरे, करता क्रोध कमाल। अंटसंट दे गालियाँ, चलता उल्टी चाल ।।२।। मोहित होता सौख्य से, बार-बार ललचाय। नहिं सह पाये कष्ट तब, रोवे अरु बिलखाय।।३।। क्रोधी गर्वित श्रमण जो, कर लेता गणत्याग। इधर-उधर वह भटकता, कारण अल्प विराग।।४।। पग-पग पर बाधा रहे, जिससे वह घबराय। संयम गिरि से गिर पड़े, मानव जन्म गँवाय।।५।। साधक को शिक्षा सुखद, फरमाते तीर्थेश । सदैव गुरु की नजर में, रहना आप विशेष।।६।। परम भाव वैराग्य से, श्रमण क्रिया अनुरक्त। सद्गुरु की हो मुख्यता, रखे याद यह सूक्त ।।७।। अर्पण सद्गुरु चरण में, अपनी इच्छा गोय। गुरु आज्ञा धारण करे, पाप कहाँ से होय।।८।। सदा निकट गुरु चरण में, ले लेना विश्राम। धर्म-रति हो ‘सुशील' मुनि, पाये अविचल धाम।।९।। ईर्या समिति प्रथम ही, करना तू अवलोक। यतना से करना गमन, लगे पाप पर रोक ।।१०।। सद्गुरु की आराधना, करना बारम्बार । मुनि ‘सुशील' निश्चय यही, हो जाये भव पार।।११।।
• भावना शक्ति. मूलसूत्रम्एगया गुणसमियस्स रीयओ कायसंफासमणुचिण्णा एगइया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेयणवेज्जावडियं, जं आउट्टीकयं कम्मं तं परिणाय विवेगमेइ।