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पाँचवाँ अध्ययन : लोकसार
पद्यमय भावानुवाद
अव्यक्त अवस्था में करे, ग्रामऽनुग्राम विहार । पहले हो परिपक्व तब, एकल गमन विचार । । १ । । माने नहिं जिन वचन अरु, साधन-पथ प्रतिकूल । दुष्पराक्रम यह श्रमण करना नहिं तू भूल । । २ । । जिनागम अध्ययन नहीं, अल्प अवधि दरम्यान । विज्ञ नहीं आचार से नहीं ध्यान विज्ञान । । ३ । ।
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अरे निकलकर गच्छ से, करता श्रमण विहार । दोषयुक्त जीवन रहे, देते सब धिक्कार । । ४ । । होंइ उपसर्ग पंथ में, जिससे संयम भ्रष्ट । नहीं चतुर्विध संघ में, श्रद्धा होगी पुष्ट । । ५ ।। श्रमण नहीं गीतार्थ यदि, और नहीं परिपक्व । अरे अकेला विचरना, मुनि का नहीं महत्व । । ६ ।। बाल अवस्था सन्त की, देख करें अपमान । दोषारोपण हो कभी, जिससे संयम हानि । । ७ । । • शिष्य हितोपदेश •
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मूलसूत्रम् -
वयसा वि एगे बुझ्या कुप्पंति माणवा, उण्णयमाणे य णरे महया मोहेण मुज्झइ, संबाहा बहवे भुज्जो भुज्जो दुरइक्कमा अजाणओ अपासओ, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं तद्भिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे, जयं विहारी चित्तण्णिवाई पंथणिज्झाइ पलिबाहिरे, पासिय पाणे गच्छिज्जा ।
पद्यमय भावानुवाद
नहीं धर्म में नुिपण जो, और क्रिया में भूल । कहने पर भी नहिं करे, हितकर वचन कबूल । । १ । ।