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अपरिग्रही अरु संयमी, ब्रह्मचर्य रत जोइ । कहता हूँ मैं तथ्य यह, अरु समझाऊँ तोइ । । २ । । मैंने यह अनुभव किया, और सुना यह सत्य । मोक्ष-बन्ध दोनों रहें, तेरे भीतर नित्य । । ३ । । सुना और अनुभव किया, कहता हूँ प्रत्यक्ष । बंध - मोक्ष तव आत्म में, तथ्य सत्य निष्पक्ष । । ४ । । रे साधक तू मौन धर, सम्यक् भाव पुकार । प्रगटित सिद्धि 'सुशील' मुनि, होती बारम्बार । । ५ । ।
श्री आचारांगसूत्रम्
विरत परिग्रह पाप से, उसका उत्तम ज्ञान । जो नर विषयाधीन हो, महामूढ़ इन्सान । । ६ । ।
तीसरा उद्देशक
संयम स्वरूप
मूलसूत्रम् -
जे पुट्ठाई णो पच्छाणिवाई, जे पुव्वुट्ठाई पच्छाणिवाई, जे णो पुव्वुट्ठाई णो पच्छाणिवाई, सेवि तारिसिए सिया, जे परिण्णाय लोग मण्णे सति ।
पद्यमय भावानुवाद
साधक तीन प्रकार के, क्या तीनों में फर्क । स्वर्ग - मोक्ष इनको मिलें, अरु संभव है नर्क । । १ । । पहले संयम साध कर, कभी न गिरते लोग। जीवन भर उद्यत रहें, काटें भव के रोग । । २ । । दूजे उठ उद्यम करें, फिर गिर जाते तात । संयम - मणि को त्याग दें, दिन भी इनको रात । । ३ । ।
तीजे तो उठते नहीं, नहिं गिरने का प्रश्न । संयम को जाने नहीं, कभी न करे प्रयत्न ।।४।।