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तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय
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पद्यमय भावानुवाद
जो भी साधक मोह को, कर लेता है नष्ट। करे नष्ट सब कर्म को, रहे न कोई कष्ट।।१।। श्रद्धावान मनुज अहो! आगम के अनुसार। बुद्धिमान क्रिया करे, जिनवर का उद्गार ।।२।। हिंसा के साधन अरे, महितल अपरम्पार।
किन्तु सार है एक यह, दया बड़ी संसार।।३।। मूलसूत्रम्एयं पासगस्स दंसणे उवरय सत्थस्स पलियतं करस्स, आयाणं णिसिद्धा सगडब्भि। किमथि ओवाही पासगस्स ण विज्जइ णत्थि। त्ति बेमि। पद्यमय भावानुवाद
सर्वदर्शी जिनवर प्रभो! फरमाते उपदेश। विरत होइ सव शस्त्र से, कर्म रहे नहीं शेष।।१।। क्रोध-मान-माया सभी, जग कषाय सब जान। मेधावी त्यागे सभी, पाये मुक्ति महान।।२।। कर्म उपादान रूप जो, कर हिंसा परिहार। श्री जिनवर का पंथ यह, कहता प्रकट पुकार ।।३।। क्या द्रष्टा को हो कभी, बंधन या कि उपाधि । उत्तर इसका है यही, द्रष्टा हो निरुपाधि ।।४।।