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.. श्री आचारांगसूत्रम् -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.
• उत्कृष्ट दशा. मूलसूत्रम्सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स णत्थि भयं। जे एगंणामे से बहुं णामे, जे बहुं णामे से एगंणामे। दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं जंति धीरा महाजाणं, परेणं परं जंति, णावकंखंति जीवियं। पद्यमय भावानुवाद
सेवन करे प्रमाद जो, भय होता चहुँ ओर। अभय फल अप्रमाद में, तिर जाए भव घोर।।१।। करता एक कषाय क्षय, करे बहुत का नाश। करे बहुत का नाश जो, कटे एक की फाँस।।२।। सुख-दुख कारणभूत जो, अरे कर्म संसार। जान-जान कर त्याग दे, कहते आगमकार ।।३।। रे साधक ! इस लोक के, धन सुख ममता त्याग। धीर वीर तू मोक्ष हित, कर साधन व्रत राग।।४।। श्रद्धा हो जिनवचन में, वह मेधावी होइ। वही जानता लोक को, पूर्ण अभय है सोइ।।५।। शस्त्र-असंयम तीक्ष्ण हैं, इक से बढ़कर एक। किन्तु न संयम हो कभी, कह 'सुशील' पद टेक।।६।।
• क्रिया कुशल. मूलसूत्रम्एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढो विगिंचमाणे एगं विगिंचइ, सड्ढी आणाए मेहावी। लोगं च आणाए अभिसेमच्चा अकुओभयं, अस्थि सत्थं परेण परं, णत्थि असत्थं परेण परं।